Book Title: Jain Dharm ka Swaroop
Author(s): Vijayanandsuri
Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf

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Page 10
________________ सम्यग् दृष्टि उसको कहते हैं; जो कोई प्रकार की भी विरति (त्याग) नहीं कर सकता है। नि:केवल त्रिकाल अरिहंत की पूजा करता है, और आठ प्रकार के दर्शनाचार को निरतिचार पालता है । वह आचार यह हैं । जिनवचन में शंका न करे १ जिनमत के सिवाय अन्य किसी मत की वांछा न करे २, जिनमत की करणी के फल में शंका न करे ३, किसी पाखंडी आदि के मंत्र, यंत्र, तंत्रादिक का चमत्कार, ऋद्धिसत्कार, सन्मान, पूजा भक्ति, इत्यादि देख के मूढ़, दृष्टि अर्थात् जैनधर्मोपरि मन में अनादर लाना, सो नहीं लावे ४, गुणवंत के गुणों की महिमा, स्तुति करके वृद्धि करे ५, जो कोई धर्म से गिरता होवे, तिस को हरेक उपाय से जिनधर्म में स्थिर करे ६, जो अपना सधर्मी होवे, चाहे किसी जाति का होवे, तिसकी अपने प्रियकुटुम्ब से भी अधिक अशन, वसन, पुष्प, तंबोल, धन, दानादि करके भक्ति करे, तिनका नाम वात्सल्य कहते है। सो सधर्मी की वात्सल्यता करे ७, तीर्थयात्रा, रथ यात्रादि महोत्सव करे, जिससे अरिहंत सदाचार आदरे, धर्मोपदेश करे, जिससे अरिहंत भाषित धर्म की प्रभावना हो । (जिसके करने से जगत् में धर्म की दीपना, वृद्धि होवे, उसका नाम प्रभावना है) ८ । यह आठों आचार यथाशक्ति पाले । यह अविरति सम्यग्दृष्टि श्रावक का धर्म संक्षेप से जानना ॥ देशविरति श्रावक का धर्म तीन प्रकार का है । जो कर्तव्य अविरति सम्यग् दृष्टि का ऊपर लिख आये हैं, सो कर्त्तव्य तीनों प्रकार के देश विरतियों का भी है, और जो विशेष है, सो लिखते हैं । जघन्य १, मध्यम २, और उत्कृष्ट ३ ॥ तिन में जघन्य श्रावक के लक्षण लिखते हैं। जो जान के स्थल जीव की हिंसा न करे, मध (शराब) मांसादि अभक्ष्य वस्तुओं का त्याग करे नमस्कार महामंत्र को धारणा करे, और नमस्कार सहित प्रत्याख्यान करे, सो जघन्य श्रावक जानना १, जो धर्म योग्य गुणों करी व्याप्त होवे, षट्कर्म, और षडावश्यक सदा करे और बारह व्रत धारण करे, ऐसे सदाचार वाले गृहस्थ को मध्यम श्रावक जानना २, जो सचित्त आहार को वरजे, दिन में एक बार भोजन करे, और ब्रह्मचर्य को पाले, सो गृहस्थ उत्कृष्ट श्रावक जानना ॥३॥ मध्यम श्रावक का स्वरूप किंचित् विस्तार से लिखते हैं। प्रथम धर्म की योग्यता के एक बीस (२१) गुण होने चाहिये, सो लिखते हैं। गंभीर होवे १ । रूपवान्, संपूर्णांगोपांग सुंदर पंचेंद्रिय पूर्ण होवे २ । प्रकृति सौम्य, स्वभाव से सौम्याकार वाला होवे ३ । लोकप्रिय, यह लोक परलोक विरुद्ध काम न करे और दान शीलादि गुणों करके संयुक्त होवे ४ । अक्रूर, अक्लिष्ट अध्यवसाय मन का मलीन न होवे ५ । भीरु, यह लोक श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ १० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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