Book Title: Jain Dharm ka Swaroop Author(s): Vijayanandsuri Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 6
________________ पंचेंद्रिय, यह सर्व जीव तिर्यंचगति में गिने जाते हैं २)॥ मनुष्यगति में सर्व मनुष्य गिने जाते हैं। ३) देवगति में चार जाति के देवता गिने जाते हैं, तिनके नाम-भुवनपति १, व्यंतर २, ज्योतिषी ३, और वैमानिक ४ । तिनमें से भुवनपति, और व्यंतर, यह दोनों जाति के देवता इसही पृथिवी में रहते हैं? २)॥ ज्योतिषी देवता, सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, तारे जो आकाश मंडल में हमें देखने में आते हैं, तिनमें सूर्य और चंद्र तिर्यग् लोक में असंख्य है, और मंगल आदि अट्ठासी ८८ जाति के ग्रह, अभिजितादि अट्ठाईस २८ जाति के नक्षत्र, और तारे यह सर्व तिर्यग्लोक में असंख्य है, यह सर्व ज्योतिषी देवता रूप तीसरी जाति का देवलोक है(३) ॥ ___ चौथा भेद वैमानिक देवताओं का है। ज्योतिषी देवताओं के ऊपर असंख्य कोड़ा कोड़ी योजन के अंतरे सौधर्म १, ईशान २, यह दो देवलोक बराबर बराबर हैं । तिनके ऊपर असंख्य योजन के अंतरे सनत्कुमार ३, माहेंद्र ४, यह दो देवलोक हैं । इसी तरह असंख्य २ योजन के अंतरे अगले ऊपरले स्वर्ग हैं, तिनके नाम-ब्रह्म ५, लंतक ६, शुक्र ७, सहस्रार ८, आनत ९, प्राणत १०, अरुण ११, अच्युत १२, इनके आगे नव ग्रैवेयक देवलोक तिनके नाम-भद्र १, सुभद्र २, सुजात ३, सोमनस ४, प्रियदर्शन ५, सुदर्शन ६, अमोघ ७, सुप्रबुद्ध ८ यशोधर ९, इनके ऊपर पांच अनुत्तर विमान बराबर हैं, तिनके नाम-पूर्व दिशा में विजय १, दक्षिण में वैजयंत २, पश्चिम में जयत ३, और उत्तर में अपराजित ४, ये चारों दिशा में हैं, और इनके मध्य में सर्वार्थसिद्ध ५, यह छब्बीस २६ स्वर्ग वैमानिक देवताओं के हैं। इन सर्व देवताओं के भुवन. नगर, विमानादिकों का स्वरूप, लंबाई, चौड़ाई और यह सर्व आकाश में किस तरह खड़े हैं, और तिन में रहने वाले देवताओं को कैसे सुख है, तथा तिनकी आयु, अवगाहना, इत्यादिकों का विस्तार सहित वर्णन प्रज्ञापनासूत्र, संग्रहणी सूत्रादिकों में है ॥ सर्वार्थसिद्ध विमान से ऊपर तेरह १३ योजन के अंतरे लोकांत है । तिस लोकांत आकाश को जैन मत में सिद्ध क्षेत्र कहते हैं । तिस आकाश क्षेत्र में मुक्तात्मा रहते हैं । तिनके ऊपर अलोक है, अलोक उसको कहते हैं, जो नि:केवल आकाशमात्र है। तिसमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, और आकाश ये पांचों द्रव्य नहीं हैं । इसलोक के चारों तल ऊपर नीचे जो नि:केवल आकाश है, तिसको अलोक कहते हैं, सो अलोक अनंत है । इसे जड़ चैतन्य की गति न हुई, न होवेगी। चारों जाति के देवताओं में जैसे जैसे शुभकर्म जो करते हैं, तिनकी प्रेरणा से तैसी तैसी देवगति उत्पन्न होते हैं, यह दोनों लोकालोक किसी ने भी रचे नहीं हैं, किंतु अनादि अनंत सिद्ध हैं । इति देवगति । श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14