Book Title: Jain Dharm ka Swaroop Author(s): Vijayanandsuri Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 7
________________ जैनमत में आठ कर्म मानते हैं, तिनके मान ज्ञानावर्णीय १, दर्शनावर्णीय २, वेदनीय, मोहनीय ४, आयु: ५, नाम ६ गोत्र ७, अंतराय ८ । इन सर्व कर्मों के मध्यम १४८ एक सौ अडतालीस भेद हैं। इन कर्मों का विस्तार सहित वर्णन षट् कर्मग्रंथ, पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति, प्रज्ञापनादि सूत्रों में है ॥ ___ कर्म उसको कहते हैं, जिनके प्रभाव से सर्व संसारी जीव देहधारण करके अनेक प्रकार की सुख दुःखादि अवस्था भोग रहे हैं। और यह कर्म स्वरूप में जड़ है। जीवों के शुभाशुभ काम करने से अनंतानंत परमाणुओं के अनंत स्कंध आत्मा के साथ संबंध वाले होते हैं, तिसको कर्म कहते हैं। जैसे तैल चोपड़े हुए शरीर के ऊपर सूक्ष्म रज जम जाती है, ऐसे ही पूर्व कृत कर्मोदय से जीव में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेषादि चिकणत्वता से जड़का संबंध आत्मा को होता है। जब वह कर्म उदय होते हैं, तब तिन के सबब से जीव एक सौ बाईस तरह के दुःख सुख भोगते हैं। इत्यादि अनेक तरह का कर्म स्वरूप जैनमत में मानते हैं । अथ जैनमत का सामान्य से मंत-व्यामंतव्य लिखते हैं। १-अरिहंत और सिद्ध इन दोनों पदों को परमेश्वर पद मानते हैं॥ २-एक ईश्वर है, ऐसे एकान्त नहीं मानते हैं। ३-ईश्वर को सर्व व्यापक नहीं मानते हैं, परंतु ईश्वर पद की ज्ञायक शक्ति को सर्व व्यापक मानते हैं ॥ ४-ईश्वर को सृष्टि का कर्ता नहीं मानते हैं । ५-संसार को प्रवाह से अनादि मानते हैं । ६-ईश्वर को जगत् का नियंता नहीं मानते हैं। ७-जगत् का नियंता जड़ चैतन्य की काल, स्वभाव, नियति, कर्म, और पुरुषार्थ रूप अनादि शक्तियों को मानते हैं। ८-ईश्वर जीवों के शुभाशुभ कर्म फल का दाता नहीं, पर ईश्वर पद को साक्षी ज्ञातृ रूप से मानते हैं । ९-ईश्वर जो चाहे, सो कर सकता है, ऐसा नहीं मानते हैं । १०-ईश्वर को जीवन मोक्ष अवस्था में अर्थात् त्रयोदशम गुण स्थान में धर्मोपदेश का दाता मानते हैं परंतु विदेह मोक्ष हुए पीछे नहीं । जैन धर्म का स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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