Book Title: Jain Dharm Prakash 1956 Pustak 072 Ank 02 Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha View full book textPage 4
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 200000000000000000000000000000&ca. @ARR A GER@@@@@@@@@@@@@@@@@@@ जल बुद्बुद (વરસાદનાં ઝરણાંઓમાં પિલા પર પટાએ નાચી-કદી જાણે ગર્વથી ફૂલાય છે અને ક્ષણજીવી છતાં પિતાની સ્થિતિને વિચાર સર પણ કરતા નથી તે ઉપરથી કવિ બોધ આપે છે.) काली काली है बादलिया, श्याम घटा घन भई सांवरिया ॥ धृ० जल कण धारा धूम मचाई, शीतल सुखकर पवन चलाई; जंगल मंगल जीवन पाया, श्याम हरित तृण अंकुर छाया ॥१॥ जल निर्झर सब मस्त भये है, आनंदित बन दौड रहे है। निज मस्तिमें डोल रहे है, तुच्छ जगत को मान रहे है ॥२॥ असंख्य निकले बुद्बुद जलमें, गर्व धरे चलते निज मनमें; रवि किरणों को निजके माने, फूले नहीं समाते तनमें ॥ ३ ।। इंद्रधनु के सप्त रंगसे, आनंदित हो त्वरित अंगसे; नाचे कूदे विविध ढंगसे, गर्वोचत हो गये छंदसे ॥४॥ लाल जांबुडे हारे दिखते, पीले श्यामल दौडे जाते; रजत रंग चमकीले होते, सुखद सुनहरे मुकुलित बनते ।। ५ ।। छोटे मोटे विविध रंगने, आकृति वनती कईक ढंगमें; असंख्य ऐसे मोती जैसे, माल परोई जलमें ऐसे ॥ ६॥ लुभावते आंखोकुं दिखते, अंदरसे सब पोले रहते; जो ऊपरसे धूम मचाते, गर्व धरे वे जगमें फिरते ।। ७ ।। जब आवे कोई पवन झकोरा, नाम रहे तव खाली कोरा; क्षण जीवनमें मस्ती करते. दसरे क्षणमें वे सब मरते ॥८॥ भो मानव ! स्थिति तेरी ऐसी, व्यर्थ मान अभिमान विनाशी; जो धरते मन गुमान कोरा, हार गये वे जन्म अनेरा ॥९॥ आत्मभाव नहीं तुजमें प्रगटा, तब तक भव फेरा नहीं निपटा; फिर तूं क्यों अभिमान हि धरता, खाली यह निज जन्म हारता ॥१०॥ जल बुद्बुद सम जीवन तेरा, फिर क्यों काल व्यर्थ तूं खोता? नाम प्रभुका धारण करले, अंतरंग तुज प्रमुदित करले ।।११।। तब तुज होगा भव निस्तारा, सत्य रूप प्रगटेगा तेरा; बालेन्दु का वचन मानले, सार्थक जीवन का तूं करले ॥१२॥ - श्री हीराय "साहित्यय" DGAOD@@@ @g (१८) @@@@ @ @GOODCHITO For Private And Personal Use OnlyPage Navigation
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