Book Title: Jain Dharm Prakash 1913 Pustak 029 Ank 02
Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 32
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ९२ जैनमर्ग प्रकाशः अब में इस कार्यकी सफलता के लिये अपने देव भगवान महा वीर तथा स्वर्गीय प्रज्यपाद गुरुमहाराज श्री विजयानन्द सूरीश्वर (आत्मारामजी) का अन्तःकरणसे स्मरण करके चाहता हूं कि यह कॉन्फरन्स - देवी दिनदिन अपना प्रभाव बढाती हुई जैनके अभ्युदयरूपी बागको हराभरा करनेमें श क्तिशालिनी हो ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सज्जनों! अपना यह पवित्र जैनधर्म अनादिकालसे भारतवर्ष में प्रचलित हैं. अपने शास्त्रमें कालचक्र के मुख्य दो विभाग किये हैं, एक उत्सर्पिणी दूसरा अवसर्पिणी प्रत्येक विभाग चौबीस चौबीस तीर्थङ्कर होते चले आये हैं. वर्तमान अवसर्पिणी कालमें प्रथम तीर्थङ्कर भगवान देव तथा अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर हुए हैं. ये शुद्ध धर्म प्रवर्तक तीर्थङ्कर अठारह दोष रहित और चार अतिशयों से युक्त होते है. चार अतिशय ये हैं: - ज्ञानातिशय. वचनातिशय, पूजातिशय तथा अपायापगमातिशय. इन अतिशयोका स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार कहा है; - संसारके जीवाजीवादि सकल पदार्थोंका त्रैकालिकज्ञान, ज्ञानातिशय कहा जाता है. विबादि दोपास राहत पैंतीस गुणोंसे युक्त भगवान्की वाणीको - जिसे हरएक प्राणी अपनी अपनी भाषा समज लेते है - वचनातिशय कहते है, प्रजातिशयक होने देव, मनुष्य, असुर आदि अनन्यभावसे भंगबान्की पूजा करते हैं, अपायापगमातिशयके प्रजावसे जहां जहां भगवान् संसारी जीवोंक उद्धाराये विहार करते है, वहांसे दुष्काल, रोग, अतिवृष्टि: अनावृष्टि, आदि उपद्रव दूर होजाते है, ऐसे वीतराग परमात्माका आराधन करना जैनधर्मका अटल सिद्धान्त है. जैन धर्ममें गुरुका स्वरूप इस प्रकार कहा है, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, त्याग और मैथुनवर्जन इन पांच महाव्रतों को धारण करनेवाला, बयालीस दोषोंसे रहित, मधुकरीवृत्तिपर जीवननिर्वाह चलानेवाला, राजकथा, देशकथा भोजनकथा, आदिसे दूर रहकर क्षुत्पिपासा. शीतोष्ण, मानापमानादि बावीस परिसह सहन करनेवाला - ऐसा गुरु संसारसागर से पार होकर औरों को भी पार करा देता है. इस पवित्र धर्म के दो भेद सर्व धर्म साधओं और किये है, सर्वविरति और देशावरत. देशवने आवकोंके लिये है. पांच For Private And Personal Use Only

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