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सिख धर्म गुरु नानक ने जो इस्लाम धर्म की क्रूरता - धर्म परिवर्तन तथा ब्रम्हामण वाद की कुरीतियों से सरक्षण करने हेतु जाओ पंथ चलाया , वही सिख-पंथ के नाम से प्रसिद्द हुआ...तत्कालीन संत धारा के अनुसार ,नानक भी निराकारवादी थे ....वे अवतारवाद ,जांत-पांत
और मूर्ति-पूजा को नहीं मानते थे....उनका मत जहाँ एक ओर वेदान्त पर आधारित है ,वही दूसरी ओर ,वह तसव्वुफ के भी कई लक्षण लिए हुए है .....गुरु नानक की उपासना के चरों अंग (सरन-खंड ,ज्ञान-खंड,करम-खंड और सच-खंड )सूफियों के चार मुकामात (शरीअत ,,मार्फत,उकबा और लाहूत)से निकले है ,ऐसा विद्वानों का मानना है .....गुरु नानक और शेख फरीद के बिच गाढ़ी मैत्री थी ,इसके भी प्रमाण मिलते हैं.........
गुरु साहब की वेश भूषा और रहन सहन सूफियों जैसी थी ....इसलिए एक अनुमान यह भी चल पड़ा की नानक पर मुस्लिम प्रभाव अधिक था.....इस अनुमान के समर्थन में यह भी कहा जाता है की गुरु नानक के शिष्य केवल हिंदू ही नहीं , बहुत से मुस्लमान भी हुए थे ......
परन्तु और सिख धर्म ग्रंथो में देखा जाया तो “ रहतनामा " में गुरु की स्पस्ट आज्ञा मिलती है की खालसा धर्म(शुद्ध धर्म )हिंदू और मुस्लिम , दोनों धर्मो से अलग है .........उनकी इस आज्ञा को सही मानना चाहिए क्यूंकि अगर नानक हिदुत्व या इस्लाम से पूर्णरूप से संतुष्ट होते तो उन्हें एक नए पंथ निकलने की चिंता ही नहीं होती ..........
सिख धर्म आरम्भ से ही , प्रगतिशील रहा है ......जांत-पांत ,मूर्ति-पूजा और तीर्थ के साथ वह सति-प्रथा ,शराब और तम्बाकू का भी वर्जन करता है .......इस धर्म ने परदे को बराबर बुरा समझा.......कहते है ,तीसरे गुरु अमरदास से एक रानी मिलने को आई ,किन्तु वह परदे में थी ...इसलिए गुरु ने उनसे मिलने से इंकार कर दिया
यह धर्म आरम्भ से ही व्यभारिक भी रहा है और जिस वैराग्य को गुरु उच्च जीवन के लिए जरुरी मानते थे .उसे वे गृहस्थों पर जबरदस्ती लड़ने के विरूद्ध थे ......खान -पण में खालसा धर्म में वैष्णवी कट्टरता कभी नहीं रही .......
विदेशीय मूल के मुस्लिम- अग्रेजों की गुलामी सहनी पडी। विदेशीय मूल के मुस्लिम- अग्रेज दोनो ही वैदिक जैन संस्कृति के विरोधी थे।