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सन्यासी अपनी जरूरतों के लिए संसार पर निर्भर रहा और तथाकथित त्यागी भी बना रहा। लेकिन ऐसा सन्यास आनंद न बन सका मस्ती न बन सका । दीन-हीनता में कहीं कोई प्रफुल्लता होती है? धीरे-धीरे सन्यास पूर्णतः सड़ गया। सन्यास से वे बांसुरी के गीत खो गए जो भगवान श्रीकृष्ण के समय कभी गूंजे होंगे सन्यास के मौलिक रूप में अथवा राजा जनक के समय सन्यास ने जो गहराई छुई थी वह संसार में कमल की भांति खिल कर जीने वाला
सन्यास नदारद हो गया। और एक अर्थ
में आसान भी है- भगवे वस्त्रधारी संन्यासी की पूजा
होती थी। उसने भगवे वस्त्र पहन लिए
उसकी पूजा के लिए इतना पर्याप्त है। दरअसल वह
उसकी नहीं, उसके वस्त्रों की पूजा थी।
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ओशो ने हर एक पाखंड पर गहरी चोट की। सन्यास की अवधारणा को उन्होंने भारत की विश्व को देन बताते हु सन्यास के नाम पर भगवा कपड़े पहनने वाले पाखंडियों को खूब ताड़ा। ओशो ने सम्यक सन्यास को पुनरुज्जीवित किया है और संसार में लाखो लोग सच्चे सन्यासी है ओशो ने पुनः उसे बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बांसुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती दी है।
ओशो सिद्धांत : ओशो के प्रारंभिक दिनो में जब वे आचार्य रजनीश के नाम से जाने जाते थे किसी पत्रकार ने उनसे उनके दस आधारभूत सिद्धांतों के बारे में पूछा। उत्तर में ओशो ने कहा ये मुश्किल विषय है क्योंकि वे किसी भी तरह के जड़ सिद्धांत या नियम की विरुद्ध रहे हैं। परन्तु सिर्फ मजाक के लिए हल्के तौर पर वे निम्न हो सकते हैं।
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• कभी किसी की आज्ञा का पालन नहीं करे, जब तक के उसकी सम्ग्यता आपके भीतर से भी नहीं आ रही हो । ईश्वर कोई अन्य नहीं हैं, स्वयं जीवन (अस्तित्व) के सत्य आपके अन्दर ही है, उसे बाहर ढूंढने की जरुरत नहीं है।
• प्रेम ही प्रार्थना हैं। शून्य हो जाना ही सत्य का मार्ग है। शून्य हो जाना ही स्वयं में उपलब्धि है।
• जीवन यहीं है अभी हैं। जीवन होश से जियो। तैरो मत बहो ।