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कसौटी सिर्फ मननीय ही नहीं, दिशादर्शक भी मनीषी मुनि-कृतिकार जैनतत्त्वदर्शन पर समय-समय पर अपने तर्कसम्मत विचार प्रस्तुत करते रहे हैं । मुनि नंदीघोषविजयजी एक प्रखर-तेजोमय चिन्तक है । उन्होंने जैनधर्म/दर्शन के वैज्ञानिक पक्ष का गहन अध्ययन किया है तथा किसी भी वैचारिक उलझन अथवा शंका को उस सीमा तक ले जाने की कोशिश की है, जहाँ पहुँच कर उसका कोई असंदिग्ध समाधान संभव हो । लेखक पूर्वाग्रह-मुक्त निर्मल मन-मानस का धनी है; उसके चित्त पर पक्षपात का कोई धुओं कोहरा नहीं है । विज्ञान के संबन्ध में उसकी जानकारी अचूक है, जिसका उसने कदम-दर-कदम फूंक-फूंक कर उपयोग किया है ।
निश्चय ही किसी भी तुलनात्मक अध्ययन-लेखन को अपनी सीमाएँ होती हैं तथापि विद्वान् लेखक ने अत्यन्त निर्मल-निर्धान्त दृष्टि से जैनाध्यात्म/जैनाचार के उन तमाम पक्षों की तर्कसंगत समीक्षा की है, जिन पर उनसे पहले विचार-विमर्श तो हुआ है; किन्तु संभवत इतनी पारदर्शिता से नहीं । किसी प्रश्न को उसके बहुआयामी वजूद में देखना, उसका तुलनात्मक अध्ययन करना, और पाठक-के-तल-पर उसे सरल शब्दों में प्रस्तुत करना एक मुश्किल काम था; तथापि मुनिश्री ने उसे संपूर्ण निर्विघ्नता के साथ संपन्न किया है ।
समीक्ष्य कृति स्पष्टतः तीन खण्डों में विभाजित है: प्रवेश, अंग्रेजी, हिन्दी । प्रवेश खण्ड में श्री दीपचन्द गार्डी, डॉ. पी.सी. वैद्य, डॉ. प्रदीप शाह, प्रो. कान्ति वी. मर्डिया, मुनिश्री नंदीघोषविजयजी, श्री पी. तिवारी, श्री शान्तिलाल मगनलाल शाह के पुस्तक के संबन्ध में समीक्षा/प्रशंसापरक विचार हैं, पृष्ठ 24 और 25 पर संदर्भ दिये गये हैं, तथा पृष्ठ 26 से 30 तक जैन पारिभाषिक शब्द-सूची है । शब्द-सूची हिन्दी-अंग्रेजी में है तथा एक विशिष्ट औसत पाठक के लिए बेहद उपयोगी है ।
द्वितीय खण्ड अंग्रेजी में है, जिसमें जैनतत्त्व-दर्शन के अनुसार विशिष्ट सापेक्षता सिद्धान्त की सीमाएँ, ई-एमसी समीकरण के संबन्ध में भ्रान्त धारणा, प्रकाश : तरंग या कण? प्रकाश की तीव्रता, डॉप्लर-के-प्रभाव के संबन्ध में विकसित नवधारणा, जैनागम में मानव-देह-रचना के कतिपय संदर्भ, जैनदर्शन और उसके चिन्तन के दो संप्रदाय जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर विचार किया गया है, तथा अन्त में अकारादिक्रम से नाम-सूची दी गयी है।
हिन्दी खण्ड में 'तीर्थंकर' (मासिक, इन्दौर) के मई 1987 से मई 1991 तक के अंकों में समय-समय पर प्रकाशित डॉ. अनिलकुमार, गणेश ललवानी, डॉ. नेमीचन्द जैन, जतनलाल रामपुरिया तथा स्वयं मनीषी लेखक के विचारों पर परस्पर स्वस्थ/ज्ञानवर्द्धक/ तर्कसम्मत क्रिया-प्रतिक्रियाएँ हैं । इस खण्ड में मुख्यतः जैन आहार पर विचार हुआ है तथापि कुछ दार्शनिक/आचरणिक पक्षों को भी सम्मिलित कर लिया गया है । जमीकंद, चलितरस, प्रकाश का सचित-अचित होना, आलू-मूली, पाका पानी, विगई-महाविगई
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