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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
सत् और असत् दोनो प्रकार की होती है। सत् से सत् - कर्मवर्गणाए और असत् से असत् - कर्मवर्गणाएं आकृष्ट होती हैं । यही संसार, जन्म-मृत्यु या भव- परम्परा है | इस दशा में श्रात्मा विकारी रहता है । इसलिए उस पर अनगिनत वस्तुओ और वस्तु स्थितियो का असर होता रहता है । असर जो होता है, उसका कारण आत्मा की अपनी विकृत दशा है | विकारी दशा छूटने पर शुद्ध आत्मा पर कोई वस्तु प्रभाव नही डाल सकती । यह अनुभव सिद्ध बात है – असमभावी व्यक्ति, जिसमें राग-द्वेष का प्राचुर्य होता है, को पग-पग पर सुख-दुःख सताते हैं । उसे कोई भी व्यक्ति थोड़े में प्रसन्न और थोड़े में प्रसन्न बना देता है । दूसरे की चेष्टाएं उसे बदलने में भारी निमित्त बनती हैं । समभावी व्यक्ति की स्थिति ऐसी नही होती । कारण यही कि उसकी आत्मा में विकार की मात्रा कम है या उसने ज्ञान द्वारा उसे उपशान्त कर रखा है। पूर्ण विकास होने पर आत्मा पूर्णतया इसलिए पर वस्तु का उस पर कोई प्रभाव नही होता । शरीर नही रहता तब उसके माध्यम से होने वाली संवेदना भी नही रहती । आत्मा सहजवृत्त्या अप्रकम्प — डोल है । उसमें कम्पन शरीर-संयोग से होता है । अशरीर होने पर वह नहीं होता ।
स्वस्थ हो जाती है,
शुद्ध आत्मा के स्वरूप की पहिचान के लिए आठ मुख्य बातें हैं :
( १ ) अनन्त - ज्ञान
( ५ ) सहज - श्रानन्द
(२) अनन्त - दर्शन
( ६ ) अटल - अवगाह
(७)
मूर्तिकपन
( ३ ) क्षायक - सम्यक्त्व ( ४ ) लब्धि
(5) गुरु लघु-भाव
थोड़े विस्तार में यूं समझिए - मुक्त आत्मा का ज्ञान दर्शन प्रवाध होता है । उन्हें जानने में बाहरी पदार्थ रुकावट नही डाल सकते। उनकी आत्म-रुचि यथार्थ होती है । उसमें कोई विपर्यास नहीं होता। उनकी लब्धि श्रात्मशक्ति भी अबाध होती है। वे पौद्गलिक सुख दुःख की अनुभूति से रहित होती हैं । वे बाह्य पदार्थो को जानती हैं किन्तु शरीर के द्वारा होने वाली उसकी अनुभूति उन्हे नहीं होती। उनमें न जन्म-मृत्यु की पर्याय होती है, न रूप और न गुरुलघु भाव ।