Book Title: Jain Darshan me Achar Mimansa
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Mannalal Surana Memorial Trust Kolkatta

View full book text
Previous | Next

Page 180
________________ १७०] जैन दर्शन में आचार मीमांसा भगवति सर्वज्ञे प्रत्ययनाशात् । "पयमक्खरंपि एक्कं पि जो न रोएइ सुत्तनिद्दिह । सेसं रोयंतो बिहु मिच्छा दिठ्ठि जमालिव्व ॥ १ ॥" किं पुनर्भगवदभिहितसकलजीवाजीवा दिवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिविकलः । < 1 - कर्म० टी० २ ५— सेन प्रश्नोत्तर, उल्लास ४, प्र० १०५ ६- उत्त० ५।२२ ७- उत्त० ७/२० ८- शा० सु० ६- भग० ७१६ १०- स्तोकमंशं मोक्षमार्गस्याराधयतीत्यर्थः सम्यग्बोधरहितत्त्वात् परत्त्वात् । —भग० वृ० ८५१० ११ - सम्मदिडिस्स वि अविरयस्स न तवो बहु फलो होई । हवई उ हत्थिरहाणं बुदं छिययं व तं तस्स ॥ १२- -चरण करणेहिं रहित्रो न खिज्झइ सुद्ध-सम्मदिट्ठी वि जेणागमम्मि सिद्धो, रहंधपंगूण दितो ॥ द० वि० ५२, ५३ १३ – उत्त० ६१६,१० १४-भग० १७/२ १५-सू० २/२/३६ १६ - भग० १६/६ क्रिया १७- स्था० ७ १८~~दशवै वृ० ४-१६ १६-- श्राचा० ११४/१ २०- उत्त० ६ २ २१-- उत्त० २३/२३-२४ २२—जामा तिष्णि उदाहिन —-आचा० १।८।१६

Loading...

Page Navigation
1 ... 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197