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जैन दर्शन में आचार मीमांसा
[१२३ विज्ञान का निरोध है, उपशमन है, अस्त होना है, यही दुःख का निरोध है, रोगो का उपशमन है, जरा-मरण का अस्त होना है।
यही शान्ति है, यही श्रेष्ठता है, यह जो सभी संस्कारो का शमन, सभी चित्त-मलों का त्याग, तृष्णा का क्षय, विराग-स्वरूप, निरोध स्वरूप निर्वाण है। दुःख निरोध का मार्ग
भगवान् महावीर ने ऋजु मार्ग को देखा३२। वह ऋजु (सीधा ) है, इसलिए महाघोर है३३, दुश्चर है३४ ।
वह अनुत्तर है, विशुद्ध है, सब दुःखी का अन्त करनेवाला है३५ उसके चार अङ्ग हैं ।
सम्यक्-दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक्-चरित्र, सम्यक-तप । इसकी अल्प-आराधना करने वाला अल्प-दुःखो से मुक्त होता है। इसकी मध्यम आराधना करने वाला सब दुःखो से मुक्त होता है। इसकी पूर्ण आराधना करने वाला सव दुःखो से मुक्त होता है।
यह जो कामोपभोग का हीन, ग्राम्य, अशिष्ट, अनार्य, अनर्थकर जीवन है और यह जो अपने शरीर को व्यर्थ क्लेश देने का का दुःखमय, अनार्य, अनर्थकर जीवन है, इन दोनो सिरे की बातों से बचकर तथागत ने मध्यममार्ग का ज्ञान प्राप्त किया जो कि आँख खोल देनेवाला है, ज्ञान करा देने वाला है, शमन के लिए, अभिज्ञा के लिए, बोध के लिए, निर्वाण के लिए होता है___यही आर्य अष्टांगिक मार्ग दुःख-निरोध की ओर ले जाने वाला है, जो कि यूँ है
१ सम्यक् दृष्टि. २ सम्यक् संकल्प ३ सम्यक् वाणी
) शील ४ सम्यक् कर्मान्त ५ सम्यक आजीविका
प्रज्ञा