Book Title: Jain Darshan me Achar Mimansa
Author(s): Chhaganlal Shastri
Publisher: Mannalal Surana Memorial Trust Kolkatta

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Page 159
________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [ १४९ स्थायी तत्त्व - जनता का तिरस्कार है । जहाँ तिरस्कार है, वहाँ निरपेक्षता है । जहाँ निरपेक्षता है, वहाँ सत्य है । असत्य की भूमिका पर सह-अस्तित्व का सिद्धान्त पनप नहीं सकता । सह-अस्तित्व का आधार - संयम भगवान् ने कहा – सत्य का वल संजोकर सबके साथ मैत्री साधो ५६ | सत्य के विना मैत्री नहीं । मैत्री के विना सह-अस्तित्व का विकास नहीं । सत्य का अर्थ है—संयम । संयम से वैर-विरोध मिटता है, मैत्री विकास पाती है। सह-अस्तित्व चमक उठता है ! असंयम से बैर बढ़ता है ५७ | मैत्री का स्वर क्षीण हो जाता है । स्व के अस्तित्व और पर के नास्तित्व से वस्तु की स्वतंत्र सत्ता बनती है । इसीलिए स्व और पर दोनों एक साथ रह सकते हैं । अगर सहानवस्थान व परस्पर - परिहार- स्थिति जैसा विरोध व्यापक होता तो न स्व और पर ये दो मिलते और न सह-अस्तित्व का प्रश्न ही खड़ा होता । सह-अस्तित्व का सिद्धान्त राजनयिकों ने भी समझा है । राष्ट्रों के आपसी । सम्बन्ध का आधार जो कूटनीति था, वह वदलने लगा है । उसका स्थान सहअस्तित्व ने लिया है । अव समस्याओं का समाधान इसी को आधार मान खोजा जाने लगा है । किन्तु अभी एक मंजिल और पार करनी है । 1 दूसरों के स्वत्व को आत्मसात् करने की भावना त्यागे विना सह-अस्तित्व का सिद्धान्त सफल नहीं होता । स्याद्वाद की भाषा में - स्वयं की सत्ता जैसे पदार्थ का गुण है, वैसे ही दूसरे पदाधों की सत्ता भी उसका गुण है । स्वापेक्षा से सत्ता और परापेक्षा से सत्ता - ये दोनों गुण पदार्थ की स्वतन्त्र व्यवस्था के हेतु हैं। स्वापेक्षया सत्ता जैसे पदार्थ या गुण है, वैसे ही परापेक्षा असता उसका गुण नहीं होता तो द्वैत होता ही नहीं । द्वैत का आधार स्व-गुण-सचा और पर - गुण सत्ता का सहावस्थान है । तह - अस्तित्व में विरोध तभी आता है जब एक व्यक्ति, जाति या राष्ट्र दूसरे व्यक्ति, जाति या राष्ट्र के स्वत्व को हड़प जाना चाहते हैं । यह आक्रामक नीति ही सह-अस्तित्व की बाधा है । अपने से भिन्न वस्तु के स्वत्व का निर्णय करना सरल कार्य नहीं है । स्व के आरोप में एक विचित्र प्रकार का मानसिक

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