Book Title: Jain Darshan ke Mul Tattva
Author(s): Vijaymuni Shastri
Publisher: Diwakar Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ ( ४ ) सम्यक् आचार की साधना के लिए समर्पित है । उनका जीवन जितना ज्ञानदीप्त है, उतना ही निर्मल चारित्रसम्पन्न है । आगरा के जैन समाज का यह सौभाग्य है कि श्रद्धेय पूज्य पृथ्वीचन्द जी महाराज, तथा राष्ट्रसंत श्री अमरमुनि जी महाराज का कृपा प्रसाद आगरा निवासियों को प्राप्त हुआ है, और उसी परम्परा में आज श्री विजयमुनि जी का ज्योतिर्मय सान्निध्य भी आगरा निवासियों को प्राप्त है। श्रद्धय श्री विजयमुनि जी गम्भीर अध्येता और उत्कृष्ट वक्ता होने के साथ ही सिद्धहस्त लेखक भी हैं । आपकी वाणी व लेखनी में ज्ञान का अजस्र प्रवाह निस्यन्दित होता रहता है । आपश्री ने कवि श्री अमरमुनि जी म० के विशाल प्रवचन साहित्य को पुस्तकाकार रूप प्रदान करने में अद्वितीय योगदान किया है, जो एक व्युत्पन्न प्रतिभाशाली शिष्य का गुरु के प्रति अनन्य समर्पण कहा जा सकता है । श्री विजयमुनि जी द्वारा लिखित अनेक पुस्तकें अभी भी अप्रकाशित हैं, जिनमें दर्शन, मनोविज्ञान, ध्यान एवं योग विषयक, कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ भी हैं । हम चाहते हैं कि उस अमूल्य ज्ञान - निधि को प्रकाशित कर जन-जन के पास पहुँचावें । अभी कुछ दिन पूर्व ही आपकी एक उत्तम कृति “चिंतन के चार चरण" प्रकाशित हुई है, उसके बाद अब प्रस्तुत है, "जैनदर्शन के मूलभूत तत्व" । यह पुस्तक जैनदर्शन के मूलभूत तत्व षटद्रव्य एवं नवतत्व पर बहुत सारपूर्ण बोधगम्य शैली में प्रकाश डालती है जो प्रत्येक तत्वजिज्ञासु के लिए उपयोगी व संग्रहणीय होगी । आगरा निवासी श्रीमान् कुंवरलाल जी सुराना की बहुत समय से भावना थी कि श्री विजयमुनि जी शास्त्री का साहित्य प्रकाशित कर जनजन को सुलभ किया जावे। आपने इस प्रकाशन में अपने परिवार की तरफ से सम्पूर्ण अर्थ सहयोग प्रदान कर न केवल उदारता का परिचय दिया है, किन्तु अपनी परिष्कृत साहित्यिक रुचि को साकार किया है । आपकी जीवन सहचारिणी तपस्विनी सो० विमलादेवी सुराना के वर्षीतप उपलक्ष्य पर आपने यह ज्ञानदीप जलाकर उनका तो अभिनन्दन किया ही है, समस्त जगत के अभिनंदन के पात्र भी हुए हैं । हम आशा करते हैं, इसी श्रृंखला में हम श्री अन्य उत्तमोत्तम कृतियों को भी शीघ्र ही प्रकाश में सहयोग के बल पर ... ******** २ अक्टूबर Jain Education International विजयमुनि जी की लायेंगे, आप सबके विनीत श्रीचन्द सुराना "सरस" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 194