Book Title: Jain Darshan aur Jaiminiya Sutra Taulnik Nirikshan Author(s): Anita Bothra Publisher: Anita Bothra View full book textPage 4
________________ की सार्थकता बताने के लिए वेदों में निहित तत्त्वज्ञान की पार्श्वभूमि शायद उनको पूरक नहीं लगी । इसके सिवा तत्त्वज्ञान में भी वैचारिक मतभिन्नता थी । क्योंकि वैदिक साहित्य में विभिन्न ऋषियों के, विभिन्नकालीन विचार प्रस्तुत किये गये हैं। इसलिए तत्त्वार्थसूत्र की भाँति दर्शन-ज्ञान-चारित्र की समन्वितता जैमिनी प्रस्तुत नहीं कर सके । मुख्य और गौण की अवधारणा उनकी तार्किक विवशता थी। (५) विश्वसंकल्पना, स्वर्ग एवं नरक : ___ विश्वस्वरूपमीमांसा एवं स्वर्ग-नरक-संकल्पना जैनदर्शन का एक प्रमुख भाग है । षड्द्रव्यों के अस्तित्ववाले आकाशप्रदेश को 'लोकाकाश' कहते हैं । उसके चहूँओर 'अलोकाकाश' भी है । त्रैलोक्यांतर्गत ऊर्ध्वलोक में क्रम से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ स्वर्गों का अवस्थान है । बीच में मनुष्य और तिर्यंचों की वसतियुक्त मध्यलोक है । अधोलोक में उत्तरोत्तर श्रेष्ठ (याने अधिकाधिक क्रूर) नरकों का आवास है । विश्व के बीच में त्रसनाडी है जिसमें सभी त्रसजीवों का वास्तव्य है । भौगोलिक स्थानों पर आधारित चतुर्गत्यात्मक व्यवस्था भी जैनदर्शन में व्यवस्थित रूप से बतायी है - जैसे कि नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव । तत्त्वार्थसूत्र में , जो कि एक दार्शनिक ग्रन्थ है, विश्वसंकल्पना को तीसरे और चौथे अध्यायों में प्रमुखता से स्थान दिया है। केवल जैमिनीय-दर्शन में ही नहीं बल्कि छहों वैदिक-दर्शनों में से किसी ने भी विश्वसंरचना को ठीक तरह से अंकित नहीं किया है । बाकी दर्शनों की तो बात छोडिए, ‘स्वर्गकामो यजेत'-इस यजुर्वेदीय मन्त्र का लबा-चौडा स्पष्टीकरण देनेवाले, जैमिनीयसूत्र एवं भाष्य में स्वर्ग की संख्या, स्थान आदि का कथन करना अत्यन्त अनिवार्य है । यज्ञ जैसे पुण्यकर्म से अगर स्वर्गप्राप्ति हो तो पापकर्मियों के लिए नरक वर्णन भी अनिवार्यता ही है । स्वर्ग-नरकसंकल्पना ऋग्वेद में बीजरूप से, अथर्ववेद में किंचित् विस्तारित रूप से और महाभारत एवं पुराणों में अतिविस्तृत रूप से पायी जाती है । स्वर्ग-नरक-संकल्पनाओं को दार्शनिक स्थान न देनेवाले वैदिक दार्शनिकों से समग्र, अतिभव्य विश्वसंकल्पना की गुंजाईश भी नहीं की जा सकती। ____ महान् आश्चर्य की बात यह है कि जैन और जैमिनीय दोनों एकवाक्यता से कहते हैं कि, 'यह समूचा विश्व अनादि और अनन्त है। इसका कारण यह है कि दोनों दार्शनिक परम्पराएँ समान रूप से ईश्वर को, उसके जगत्कर्तृत्व को तथा उत्पत्ति-प्रलयादि कल्पनाओं को पूर्ण रूप से नकारती है । (६) देवतासृष्टि : देवता के विषय में जैमिनी ने, दसवें अध्ययन के चतुर्थ पाद के देवताधिकरण में विचार किया है । यज्ञयागादि में किसी देवताविशेष (इन्द्र, विष्णु, वरुण इ.) को लक्ष्य करके आहुति दी जाती है । ‘देवाय', 'अग्नये' आदि पद, मीमांसा के मत में, देवता-सम्प्रदानकारक-सूचक पद मात्र है । देवता मन्त्रात्मक है । शब्दरूप मन्त्रों को सर्वाधिक प्रधानता है। 'शब्द नित्य है'', इसलिए मन्त्र मुख्य और देवता गौण है । अत: देवता की कृपा को नहीं बल्कि यज्ञीय अनुष्ठान को ही महत्त्व दिया है। जैनदर्शन के अनुसार देवगति चतुर्गति में से एक है । देवताओं को भी आयुष्कर्म का क्षय होने पर, स्वर्गलोक का त्याग करना ही पडता है । देवी-देवों की उपासना काम्यभावना से की जा सकती है । परन्तु वे जब फल देते हैं, तब उपासक के कर्मों के अनुरूप ही फल उन्हें देना पडता है, कम या ज्यादा नहीं । सर्वोच्च पूजनीयता की दृष्टि से वीतरागी जिन तथा तीर्थंकर आदि श्रेष्ठ स्थान पर हैं और देवता गौण स्थान पर हैं। 'देव-देवताओं को गौण स्थान पर रखना' - यह जैन और जैमिनीय दोनों दर्शनों का लक्षणीय साम्य है। (७) सद्वस्तुमीमांसा : द्रव्य, जाति, गुण, कर्म और अभाव ये पाँच पदार्थ कुमारिल द्वारा स्वीकृत है । द्रव्य, जाति, गुण, कर्म,Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12