Book Title: Jain Darshan aur Jaiminiya Sutra Taulnik Nirikshan
Author(s): Anita Bothra
Publisher: Anita Bothra

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Page 7
________________ (१२) कर्मविषयक दृष्टिकोण : ‘सभी वेदवाक्यों का कर्मपरक तात्पर्य बताना' - यह मीमांसा का मुख्य प्रयोजन होने के कारण कर्म का विविध दृष्टियों से स्पष्टीकरण देने का प्रयास जैमिनीयसूत्र और शाबरभाष्य के प्रायः सभी अध्यायों के सभी पादों में दिखाई देता है । खास कर द्वितीय अध्याय के चार पाद पूर्णतः कर्मविचार को समर्पित है। सभी बिखरी हुई कर्ममीमांसा अगर हम एकत्रित रूप से सामने लाए तो विविध प्रकार से कर्मों का वर्गीकरण दिखाई देता है । * स्थावर-त्रस सृष्टि का हलनचलन, जीवों का चतुर्गतिभ्रमण और आत्मिक उन्नति करनेवाले यज्ञयागादि कर्म इन पर आधारित वर्गीकरण सहजकर्म, जैवकर्म और ऐक्षकर्म इन संज्ञाओं से सम्बन्धित है । * नित्य-नैमित्तिक, काम्य-निषिद्ध और प्रारब्धकर्म जैमिनीय कर्मकाण्ड की खास अपनी विशेषता है । * उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण और गमन यह पंचविध कर्म न्याय-वैशेषिकदर्शनसम्मत है और मीमांसाद्वारा भी स्वीकृत है । * मीमांसा के दूसरे अध्याय में कर्मभेद के कई प्रकार दिये हुए हैं । जैसे कि - शब्दान्तर से, अभ्यास से, संख्या से, संज्ञा से, गुण से, प्रकारान्तर से, काल से, देश से, निमित्त से, फल से, संस्कार्य से आदि ।२२ यद्यपि कर्मों के विविध प्रकार मीमांसकों ने प्रस्तुत किये हैं तथापि यज्ञसम्बन्धी विधि-विधानों का विशेष स्पष्टीकरण ही मीमांसा का मुख्य प्रयोजन है । कर्मों का फल कर्मों के द्वारा स्वयं होता है । यज्ञादि द्वारा जो अपूर्व पैदा होता है वहीं कर्म का फल देने में समर्थ है। कर्म और कर्मफल के व्यवधान को जोडने के लिए मीमांसा में जिस अदृश्यशक्ति की स्थापना की है उसे 'अपूर्व' कहते हैं । जैमिनि, शबर, कुमारिल, प्रभाकर आदि के अनुसार यागादि क्रिया प्रमुख हैं, देवता गुणभूत हैं और स्वजन्य अपूर्व द्वारा ही व्यक्ति कर्म का फल प्राप्त करता है । अत: पुरुषार्थ की प्रधानता है । जैनदर्शन में कर्मसिद्धान्त और पुनर्जन्म एकमेक से जुडे हुए हैं। सृष्टि में भरे हुए अनन्तानन्त जीवों के जन्ममरण की पूरी मीमांसा इस कर्मसिद्धान्त में ही निहित है । एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रियों तक सभी जीवों को एवं चारों गतियों को भी यह कर्मसिद्धान्त उपयोजित है । जैमिनीय में कर्मसिद्धान्त का स्वरूप मुख्यत: मानवलक्षी दिखाई दे है । जैन दृष्टि से एक भी जीव का अस्तित्व कर्मसिद्धान्त से परे नहीं है । मीमांसकों की तरह जैनियों का कर्म भी अचेतन है लेकिन स्पष्टरूप से अणुरूप है । अणुरूप अचेतन कर्म भी, जीव के सम्पर्क में आने पर, फल देने में समर्थ होते हैं - इस प्रकार जैनों की दृढ धारणा है । नवीन मीमांसकों को अचेतन कर्म द्वारा प्राप्त होने वाला फल देने के लिए ईश्वर का अस्तित्व मानना पडा । लेकिन जैनों ने कर्म की सम्पूर्ण स्वयंचलित व्यवस्था प्रचलित की । जैन कर्मसिद्धान्त बहुत सारे प्रकार-उपप्रकारों से पुष्पित-फलित हुआ । ज्ञानावरणादि आठ मूलप्रकृति, कर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ, घाति-अघातिकर्म, कर्मों की द अवस्थाएँ३ इ. पर आधारित पूरे साहित्य का सम्भार जैनियों ने निर्माण किया । प्रत्येक जीव के प्रतिक्षण 'कर्म-वेदन' की, ‘कर्मनिर्जरा' की और 'कर्मबन्ध' की सूक्ष्म अवधारणा स्थापित की । जैमिनीय के अपूर्वसिद्धान्त की समकक्ष संकल्पना जैन कर्मसिद्धान्त में उपलब्ध नहीं है । अपूर्व जैसा कोई नया तत्त्व निर्माण करने के बदले कर्मों का ही 'आबाधाकाल' उन्होंने माना है । दोनों दर्शनों में कर्मविचारणा को अनन्यसाधारण महत्त्व है । उनकी कर्मविचारणा में अनेक साम्य भी है । ईश्वर को न मानने के कारण दोनों ने अपनी-अपनी कर्मव्यवस्था ज्यादा से ज्यादा सुसंगत और तार्किक बनाने का प्रयास किया है । फिर भी ‘कर्मकाण्ड की ओर झुकाव' और 'कर्मबन्ध से निवृत्ति' - ये दोनों मूलगामी धारणाएँ अलग होने के कारण दोनों में लक्षणीय भेद भी दिखाई पडता है । (१३) यज्ञविषयक दृष्टिकोण : पूर्वमीमांसा दर्शन में यज्ञयागादि को मनुष्य का सबसे बडा कर्तव्य बतलाकर उसकी महत्ता, क्रिया और विधि

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