Book Title: Jain Darshan aur Jaiminiya Sutra Taulnik Nirikshan
Author(s): Anita Bothra
Publisher: Anita Bothra

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Page 10
________________ * दोनों सच्चे अर्थ में निरीश्वरवादी है । मतलब ईश्वर को कर्ता-धर्ता के रूप में नहीं स्वीकारते और सृष्टि को अनादि-अनन्त भी मानते हैं। * स्वर्ग संकल्पना दोनों में समानता से पायी जाती है लेकिन देव-देवताओं का स्थान दोनों ने गौण रूप से ही माना है। * आत्मस्वरूप और जगतस्वरूप का विचार करते हुए हम दोनों को वास्तववादी (realist), द्वैतवादी (dualist) और बहुतत्त्ववादी (pluralist) इन तीनों विशेषणों से समान रूप से विशेषित कर सकते हैं । ___ * दोनों समान रूप से मानते हैं कि प्रत्येक आत्मा स्वतन्त्र है और संख्या से अनेक अथवा अनन्त है । प्रत्येक आत्मा कर्मों का कर्ता-भोक्ता है । * ईश्वरभक्ति और ईशकृपा को कोई स्थान न होने के कारण दोनों ने आत्मनिर्भरता एवं पुरुषार्थ को अधोरेखित किया है। * कर्मविचारणा की विभिन्नता कितनी भी हो, दोनों एकवाक्यता से कहते हैं कि कर्म की व्यवस्था स्वयंचलित है । वही जन्म-मरण रूप संसारचक्र का उपादानभूत है । * मुक्तजीवों का सत्ता रूप में त्रैकालिक अस्तित्व दोनों की समानता है । मुक्तजीवों का पुनरागमन मान्य न होने के कारण दोनों में अवतारवाद की संभावना नहीं है । * स्त्री-पुरुषों के धार्मिक कार्यों के प्रति समान अधिकार, शूद्रों के अधिकार एवं अंगहीन लोगों के भी धर्मसम्बन्धी अधिकारों की चर्चा मीमांसादर्शन के षष्ठ अध्याय के प्रथम पाद में प्रस्तुत की गयी है । जैनधर्म नेवारंवार साधुओं के साथ साध्वियों का और श्रावकों के साथ श्राविकाओं का उल्लेख किया है । जाति और वर्णव्यवस्था के विरोध में अपना अलग दृष्टिकोण स्पष्ट किया है। जैन और जैमिनीय के साम्यस्थल खोजने का प्रयास इस शोधलेख में किया है । अगर हम दोनों की अधिक गहराई में उतरे तो त्रस-स्थावर संकल्पना, उत्क्रान्तिवाद के अनुकूल संकेत, जीवजातियों की योनि में अयोनिज अर्थात् जैन दृष्टि से सम्मूर्छिम जीव आदि अनेकानेक संकल्पनाओं के बारे में वैचारिक समीपता दिखाई से लगती निष्कर्ष : ऐतिहासिक क्रमबद्धता अगर ध्यान में रखी जाय तो जैमिनीय सूत्रों का विश्लेषण जैन प्राचीन आगमों के पृष्ठभूमि पर रख कर एक अलग ही चित्र सामने उभरकर आता है । जैन और बौद्ध दोनों परम्पराएँ वर्णाश्रमविरोधी एवं यज्ञीय हिंसा के बिलकुल ही खिलाफ थी । यज्ञीय हिंसा ऐसे कगार तक पहुंची थी कि उक्त श्रमण परम्पराओं ने डटकर उसका सामना किया । महर्षि जैमिनि लगभग इ.स.पूर्व तिसरी शताब्दी में इस वैचारिक क्षेत्र में प्रविष्ट हुए । वेदवाक्यों का आधार लेकर चली हुई हिंसापरकता, खुद उनको भी मान्य नहीं थी । श्रमण परम्परा का विरोध चल ही रहा था । ऐसी स्थिति में यज्ञशास्त्र में प्रविष्ट हिंसापरकता दूर करने का बीडा उन्होंने उठाया । प्रखर तर्कबुद्धि और उचित मूलगामी भाषाज्ञान के आधार से उन्होंने वेदवाक्यों के अर्थ, नई सूझबूझ के साथ प्रस्तुत किये । जैमिनि के सामने तत्त्वज्ञानपर प्रारूप स्वतन्त्र रूप से उपलब्ध नहीं था । उन्होंने सूत्रों की रचना में ही तत्त्वज्ञान का प्रारूप गुंफित किया । उस तत्त्वज्ञान का भावार्थ अगर एकत्रित किया तो जैन तत्त्वज्ञान से वह प्रारूप ज्यादा से ज्यादा सादृश्य प्रकट करता है। अगर अहिंसा के प्रति क्रम से अग्रेसर होना है, तो जैनियों का प्रारूप अधिक सयुक्तिक होना यह कोई महान् आश्चर्य की बात नहीं है। **********

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