Book Title: Jain Darshan aur Jaiminiya Sutra Taulnik Nirikshan Author(s): Anita Bothra Publisher: Anita Bothra View full book textPage 6
________________ या आशय का महत्त्व मुख्य रहा । जैन आगमों का पठन-पाठन सूत्ररूप, अर्थरूप और उभयरूप होता था । इसी काण पाँच विभिन्न भाषाओं में शब्दान्तरण होने के बावजूद भी जैनदर्शन का मूल तत्त्वज्ञानात्मक ढाँचा सुनिश्चित ही रहा (१०) वेद तथा आगमों की पौरुषेयता एवं अपौरुषेयता : मीमांसा के अनुसार वेदवाक्य पौरुषेय याने किसी पुरुष के द्वारा रचित नहीं हैं । वेद ईश्वर द्वारा भी रचित नहीं हैं । क्योंकि मीमांसकों को कर्ता-धर्ता के स्वरूप में ईश्वर का अस्तित्व ही मान्य नहीं है । वेदों में कर्ताओं के नाम निहित नहीं हैं । ऋषियों के नाम द्रष्टाओं के नाम हैं, कर्ताओं के नहीं हैं । वेद नित्य हैं क्योंकि शब्द नित्य हैं । शब्द का अर्थ के साथ सम्बन्ध भी नित्य है । वेद किसी भी मानवविशेष द्वारा अथवा ईश्वरद्वारा रचित न होने के कारण अनादिकाल से गुरुशिष्य परम्परा के द्वारा चलते आये हैं ।१८ एक दृष्टि से देखे जाय तो जैन आगम पौरुषेय है और दूसरी दृष्टि से देखे जाय तो जैन आगमों को हम औषेय भी कह सकते हैं । समय-समय में तीर्थंकरों के द्वारा उपदिष्ट होने के कारण उन्हें हम पौरुषेय कह सकते हैं। ईश्वरद्वारा रचित न होने के कारण भी वे पौरुषेय है । क्योंकि जैनदर्शन में भी कर्ता-धर्ता के रूप में ईश्वर की मान्यता नहीं है । हरएक तीर्थंकर परम्पराप्राप्त आगमों को ही आगे बढाता है । जैनधर्म अनादि होने के कारण वे किसी पुषविशेषद्वारा रचित भी नहीं कहे जा सकते । इसलिए आगम अपौरुषेय भी हैं । वेदवचनों की तरह आगमवचनों की नित्यता एवं शब्दार्थों की नित्यता जैन परम्परा ने स्वीकृत नहीं की है । शब्द को जैनदर्शन ने पुद्गल के पर्याय के रूप में स्वीकृत किया है और पर्याय नित्य नहीं होते १९ (११) ईश्वर-संकल्पना : आस्तिक दर्शनों में अनेक कारणों से सृष्टि के कर्ता, कर्मफलदाता, वेदप्रणेता या अदृश्य शक्ति आदि के रूप में ईश्वर की मान्यता दिखाई देती है । न्याय-वैशेषिक, योग-वेदान्त आदि में ईश्वरसिद्धि के लिए मुख्यत: दोकारण दिये जाते हैं - १) सृष्टि और प्रलय का समर्थन । २) वेद-प्रामाण्य का संस्थापन । मीमांसक उत्पत्ति और प्रलय को नकारते हैं । संसार को अनादि-अनन्त मानते हैं । उत्पत्ति-प्रलय के रूप में सृष्टिकर्ता ईश्वर को नहीं मानते । कर्मफलदाता भी ईश्वर नहीं है। मीमांसासूत्रों के प्रणेता जैमिनि, ईश्वर के बारे में मौन रहना ही बेहतर समझते हैं, लेकिन कहीं भी वे इसका निराकरण, खण्डन या स्पष्टीकरण ऐसा नहीं देते हैं कि ईश्वर का अस्तित्व उनके लिए नहीं है । अभ्यासकों ने मीमांसकों के बारे में यह निरीक्षण प्रस्तुत किया है कि, 'परवर्ती मीमांसकों में ईश्वरविषयक मान्यता दिखाई देती है ।'२० महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जैमिनीय का ईश्वरसम्बन्धी दृष्टिकोण जैनियों से बिलकुल मिलता-जुलता है। केवल फर्क इतना है कि स्वसिद्धान्त-परसिद्धान्त की समीक्षा करनेवाले प्राचीन अर्धमागधी सूत्रकृतांग ग्रन्थ में ईश्वर और सृष्टि की उत्पत्ति का स्पष्ट शब्दों में निरास किया है ।२१ परवर्ती जैन नैयायिकों ने ईश्वर के असिद्धि के लिए कई प्रकार के तर्क उपस्थित किये हैं। ___ सिद्धशिला पर आरूढ मुक्तजीवों के लिए जैन ग्रन्थों में कभी-कभी ईश्वर या परमात्मा ऐसे शब्द प्रयुक्त किये हुए दिखाई देते हैं । लेकिन इस ईश्वर का सम्बन्ध किसी भी तरह से सृष्टिकर्ता ईश्वर से नहीं है । जैन दृछि से मुक्तजीव परमात्मा हैं और वे अनन्त हैं।Page Navigation
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