Book Title: Jain Darshan aur Jaiminiya Sutra Taulnik Nirikshan Author(s): Anita Bothra Publisher: Anita Bothra View full book textPage 3
________________ (३) अथातो धर्मजिज्ञासा : जैमिनीय का प्रारम्भिक सूत्र है, 'अथातो धर्मजिज्ञासा ।' वैदिक परम्परा में 'अथ' शब्द को मंगलवाचक मानकर, पातञ्जलयोगसूत्र में एवं बादरायण ब्रह्मसूत्र में भी प्रयुक्त किया गया है । वे क्रम से कहते हैं - ‘अथ योगानुशासनम् ।' एवं 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ।' अथ शब्द का मांगल्य अर्थ जैन परम्परा को मान्य नहीं है । अत: श्वेताम्बर-दिगम्बर आगमों में एक भी ग्रन्थ का आरम्भ 'अथ' शब्द से नहीं किया गया है। ___ धर्म की जिज्ञासा जैमिनीय ने भी की है और जैनों ने भी । सूत्रकृतांग (१) ग्रन्थ में 'धर्म' नामक नौवें अध्ययम में आरम्भ में प्रश्न उपस्थित किया है कि, कयरे धम्मे अक्खाए, माहणेण मईमया ।' दशवैकालिक नामक ग्रन्थ की प्रारम्भिक पंक्ति इस प्रकार है - ‘धम्मो मंगलमुक्किटुं अहिंसा संजमो तवो ।' इस पंक्ति में प्रथम ही धर्म का मंग्लत्व स्पष्ट किया है और बाद में अहिंसा, संयम और तप को मंगलोत्पत्ति का कारण बताया है । जिस प्रकार मीमांसा में 'वेदोऽखिलो धर्ममूलम्', एक सुप्रतिष्ठित तत्त्व है उसी प्रकार जैन परम्परा में भी वीतराग-प्रणीत आगमवचन ही धर्म के मूलाधार माने हैं। धर्म की क्रियापरता स्पष्ट करते हुए जैमिनी दूसरे ही सूत्र में कहते हैं - 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' अर्थात् वेदनिहित एवं क्रियापरक वाक्य ही धर्म है । यह दृष्टिकोण जैन परम्परा को बिलकुल मान्य नहीं है । धार्मिकआचार के सम्बन्ध में कर्मकाण्ड एवं क्रियापरता का मानदण्ड हटाकर, जैनियों ने निवृत्ति एवं संयम की बात ही वारंवार अधोरेखित की है । दोनों दर्शनों का धर्म की ओर देखने का तरीका इस प्रकार अलग-अलग है । (४) जैमिनीयसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्र की कुछ रचनात्मक विशेषताएँ : * तत्त्वार्थसूत्रकार वाचक उमास्वाति का काल सामान्यत: तीसरी-चौथी शताब्दी माना जाता है । इसका अर्थ यह है कि उनके सामने उत्तरमीमांसा अर्थात् वेदान्त छोडकर बाकी सब याने कि पूर्वमीमांसा, सांख्य, योग न्याय और वैशेषिक इन सब दर्शनों के सूत्रबद्ध ग्रन्थ उपस्थित थे । सूत्र की बाह्य रचना के अनुसार देखा जाय तो तत्त्वार्थसूत्र पर वैशेषिक एवं पातञ्जलयोगसूत्र का प्रभाव निश्चित रूप से दिखाई देता है । विषय और दृष्टिभिन्नता के कारण जैमिनीयसूत्रों का प्रभाव दिखाई नहीं देता। * तत्त्वार्थसूत्र प्राकृत-भाषा-निबद्ध जैन आगमों का संस्कृत-सूत्रबद्ध साररूप है । उसमें मूलगामी जैन तत्त्वज्ञान, विश्वस्वरूप, कर्मसिद्धान्त, नयवाद और मुनि एवं श्रावकों का आचार भी समाविष्ट है । विषय की दृष्टि से तत्त्वार्थसूत्र एक परिपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ है। वेद, ब्राह्मण एवं कल्पविषयक ग्रन्थ, जैमिनीयसूत्र के आधारभूत ग्रन्थ हैं । 'उनमें निहित तत्त्वज्ञान विषयक विचारों का निचोड सूत्ररूप में लाना' - यह जैमिनीयसूत्र का प्रतिपाद्य बिलकुल भी नहीं है । पदार्थ, तत्त्वविचार, सैद्धान्तिक अवधारणा, विश्वविचार, ज्ञानमीमांसा आदि सब विषय जैमिनीयसूत्रों से गौण प्रकार से निष्पन्न होते हैं । 'वेदवाक्यों की अन्तर्विरोधिता दूर करना ही उसका प्रतिपाद्य है । 'यज्ञीय कर्मकाण्ड की उपादेयता' जैमिनी का प्रमुख प्रयोजन है । वैशेषिक दर्शन के सप्तपदार्थ प्राय: जैमिनी ने गृहीतक के रूप में माने हैं - जैसे कि द्रव्य, गुण, कर्म इ. । यह तथ्य वैशेषिक दर्शन की प्राचीनता की ओर संकेत देता है । * तत्त्वार्थसूत्र में ऐसे विषयों का समग्रता से जिक्र किया है जो विषय श्वेताम्बर-दिगम्बर आगम एवं उनके परवर्ती प्राचीन, अर्वाचीन व्याख्याग्रन्थों में समानता से शब्दांकित किये गये हैं। जिन मुख्य अवधारणाओं में निबिाद मान्यता है ऐसे सारे विषय तत्त्वार्थसूत्र में गुंफित है। जैमिनीयसूत्रों में यह तथ्य दिखाई देता है कि वेदों में निहित ज्ञानकाण्ड और कर्मकाण्ड में से केवल कर्मकण्ड को ही प्रमुखता दी है । पूरे ज्ञानकाण्ड को केवल अर्थवाद की दृष्टि से ही सार्थक माना है। * षडद्रव्य और नवतत्त्वों की अवधारणा, चारित्रपालन के लिए पुरक होने के कारण तत्त्वार्थसत्र में एकत्रित रूप से उनका दार्शनिकीकरण हुआ । जैमिनी के सामने एक आपत्ति थी । यज्ञीय कर्मकाण्ड एवं दैनन्दिन विधिविधानोंPage Navigation
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