Book Title: Jain Darshan aur Jaiminiya Sutra Taulnik Nirikshan
Author(s): Anita Bothra
Publisher: Anita Bothra

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Page 2
________________ परीक्षण और अनुसन्धान । __जैन अर्धमागधी ग्रन्थों में इसी अर्थ में मीमांसा (प्राकृत - वीमंसा) शब्द प्रयुक्त किया गया है । नायाधम्मकहा में उल्लेख है कि अभयकुमार ईहा-ऊह-मार्गणा-गवेषणा-मीमांसा में प्रवीण था । जैन ज्ञानमीमांसा को समर्पित नन्दीसूत्र ग्रन्थ में भी इसी पदावलि का उपयोग पाया जाता है। हम कह सकते हैं कि यहाँ मीमांसा शब्द का प्रयोग पूर्वमीमांसा एवं जैमिनीयसूत्र से सम्बन्धित नहीं है । उपरोक्त नन्दीसूत्र में 'मिथ्याश्रुत' शीर्षक के अन्तर्गत लगभग २७ जैनेतर ग्रन्थों के नामों की गिनती दी है । उनमें अंग, उपांगसहित चार वेद' इस पदावलि में कल्पग्रन्थ भी समविष्ट है जिन पर जैमिनीयसूत्र आधारित है । इसके सिवा ‘कल्पाश्रित' (कप्पासिय) इस संज्ञा से हम शाबरभाष्यसहित जैमिनीयसूत्रों का अन्तर्भाव कर सकते हैं । मीमांसा एवं जैमिनी शब्द का साक्षात् प्रयोग न होते हुए भी हम दावे के साथ कह सकते हैं कि नन्दीकार को जैमिनीयदर्शन ही अपेक्षित है । क्योंकि सांख्य, वैशेषिक, पातञ्जल, बुद्धवचा आदि सब उल्लिखित होने के कारण जैमिनीयसूत्रों का उल्लेख न होना असम्भव है। जैमिनीयसूत्रों के शाबरभाष्य में मीमांसा शब्द का विशेष अर्थ इस प्रकार से दिया जाता है कि इस शास्त्र में वेदवचनों का परिशीलन करके समन्वय प्रस्थापित किया है। मीमांसा के अन्य नाम निम्न प्रकार के हैं। १) यज्ञों के निमित्त वेद वाक्यों में विनियोगार्थ इस शास्त्र के प्रयोग के कारण इसे 'अध्वरमीमांसा' भी कहा जाता है। २) वेदविहित कर्मों के निष्पादन में प्रयोजक, प्रेरक और निर्णायक होने के कारण इसे 'कर्ममीमांसा' भी कहा जाता है। ३) यज्ञकर्म द्वारा पुरुषार्थ-चतुष्टय का साधक होने एवं मोक्षप्रापक कर्म-ब्रह्म की उपासना में प्रवृत्त करनेवाली यह ‘ब्रह्ममीमांसा' भी है। ४) न्यायविषयक ग्रन्थों में अर्थनिर्णय में सहाय्यक होने के कारण इसे 'न्यायशास्त्र' भी कह सकते हैं । (२) जैमिनीय और अनुयोगद्वार : पद्धतिशास्त्र की समानता ____ जैमिनीयसूत्रों का काल यद्यपि तीसरी शताब्दी माना गया है तथापि शाबरभाष्य की रचना के बाद याने कि ईसा की पहली-दूसरी शती में दार्शनिकक्षेत्र में मीमांसा का प्रचलन अच्छी तरह से होने लगा । जिस प्रकार मीमांसादर्शन अर्थनिष्पत्ति एवं तात्पर्यनिश्चिति का शास्त्र है उसी प्रकार का स्थान जैन अर्धमागधी आगम ग्रन्थों में अनुयोगद्वार का है । अभ्यासकों ने अनुयोगद्वार के रचयिता आर्यरक्षित का काल ईस्वी की पहली शताब्दी निर्धारित किया है ।इसका अर्थ है कि दोनों परम्पराओं में ईस्वी की प्रारम्भिक शताब्दियों में अर्थनिष्पत्ति, तात्पर्यनिर्णय एवं पद्धतिशास्त्र का विकास समानरूप से जारी था । अनुयोगद्वारसूत्र 'Theory of Interpretation' के तौरपर प्रसिद्ध है । ___ मीमांसा का उद्देश वेदवाक्यों का समन्वय करना है । अनुयोगद्वार का उद्देश आगमों के परस्परविरोधिता का समन्वय करना कतई नहीं है क्योंकि श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों आगमों में प्राय: तात्त्विक या सैद्धान्तिक मूलगामी मतभेद नहीं है । अनुयोगद्वार ने अर्थनिष्पत्ति का एक नया तरीका अपनाया है । ‘नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव' अथवा 'द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव' इस निक्षेप-चतुष्टय के द्वारा संकल्पनाओं की समीक्षा करने का तरीका अनुयोगद्वार प्रस्तुत करता है । वाक्यों से उचित अर्थबोध होने के लिए व्याकरणिक अंग से व्युत्पत्ति', 'समास', 'विभक्ति' आदि दृष्टियों से भी मार्गदर्शन पाया जाता है । जैन विश्लेषण पद्धति के आधारभूत ‘सप्तनयों' का एवं चार प्रमाणों' का भी विवेचन अनुयोगद्वार प्रस्तुत करता है। जैमिनीयसूत्र और अनुयोगद्वार में पद्धतिशास्त्र (methodology) का जो विकसित रूप पाया जाता है वह बहुतही लक्षणीय है । इन दोनों की विस्तृत तुलना संशोधकों के लिए एक अमूल्य अवसर है।

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