Book Title: Jain Bhakti Sahitya
Author(s): Mahendra Raijada
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 4
________________ ६२८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन प्रन्य : पंचम खण्ड ............ ............................................................. लिखा है-"न पूजार्थस्त्वयि वीतरागेन निन्दया नाथ विवान्तवैरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिन: पुनातिचित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ।" द्यानतराय ने जिनेन्द्र के प्रेरणाजन्य कर्तव्य को एक उपालम्भ के द्वारा प्रकट किया है तुम प्रभु कहियत दीनदयाल । आपन जाय मुकति में बैठे, हम जु रुलत जगजाल ॥ तुमरो नाम जपं हम नीके, मन बच तीनौं काल । तुम तो हम को कछू देत नहि, हमारो कोन हवाल । बुरे-भले हम भगत तिहारे, जानत हो हम हाल । और कछू नहीं यह चाहत है, राग द्वेष कौं टाल ॥ हम सों चूक परी सो बकसो, तुम तो कृपा विशाल । द्यानत एक बार प्रभु जग तै, हमको लेहु निकाल ।। जैन भक्त कवियों ने दास्यभाव से भी जिनेन्द्र की उपासना की है। जैन भक्त भगवान का अनन्य दास है और उसका आराध्य अत्यन्त उदार है तथा वह अपने दास को भी अपने समान बना लेता है। कवि बनारसीदास ने ज्ञानी के लिए सेवाभाव की भक्ति अनिवार्य बताई है । जैनभक्त 'दीनदयालु' को पुकारता है "अहो जगदगुरु एक सुनियो अरज हमारी। तुम प्रभु दीन दयालु, मैं दुखिया संसारी ॥" जैन भक्त कवियों ने हिन्दी के भक्त कवियों की भाँति अपने आराध्य की महत्ता का प्रतिपादन किया है। जब भक्त अपने को लघु तथा अपने आराध्य को अत्यन्त महान् समझता है तभी वह श्रेष्ठ भक्त कहलाता है। हिन्दी के शीर्ष कवि तुलसीदास एवं सूरदास ने अपने आराध्य राम और कृष्ण को ब्रह्मा और महेश से भी बड़ा बतलाया है तो जैन भक्त कवियों ने भी जिनेन्द्र को अन्य देवों से बड़ा माना है। आराध्य की महत्ता के समक्ष भक्त अपने को अत्यन्त तुच्छ एवं अकिंचन समझता है । भक्त अपने को जितना अकिंचन एवं लघु अनुभव करता है वह उतना ही विनम्र होगा और अपने आराध्य के समीप पहुँच जायेगा। तुलसी ने लघुता के भाव को 'विनय पत्रिका' में पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया है। जैन भक्त कवि का जगजीवन, मनराम, बनारसीदास तथा रूपचन्द आदि ने अपने पदों में अपनी लघुता को प्रमुखता प्रदान की है। लघुता के साथ ही भक्त के हृदय में दीनता का भाव भी जागृत होता है । जैन भक्त कवियों ने दीनता को लेकर 'दीनदयालु' के सम्बन्ध में प्रचुर पदों की रचना की है। इन भक्त कवियों में दौलतराम की 'अध्यात्म बारहखड़ी', भैया भगवतीदास का 'ब्रह्मविलास', भूधरदास का 'भूधर विलास' आदि उल्लेखनीय हैं। जिनेन्द्र 'दीनदयालु' एवं 'अशरणशरण' हैं। जैन भक्त कवियों ने जिनेन्द्र के इस रूप को लेकर प्रचुर मात्रा में आत्मपरक पदों की रचना की है। इस सन्दर्भ में पं० दौलतराम का निम्न पद द्रष्टव्य है जाऊं कहां तजि शरण तिहारी। चूक अनादितनी या हमरी, माफ करौ करुणा गुनधारे । डूबत हौं भवसागर में अब, तुम बिनु को मोहि पार निकारे ॥ जैन भक्त कवियों ने जिनेन्द्र के नाम जाप की महिमा सदैव स्वीकारी है। हिन्दी के सूर, तुलसी आदि भक्त कवियों के समान ही इन जैन भक्त कवियों ने भी जिनेन्द्र का नाम जपने की महिमा गायी है। जिनेन्द्र में असीम गण हैं और मानव है ससीम। अतः असीम को कहने के लिए ससीम अतिशयोक्ति का सहारा लेता है। जैन कवि द्यानतराय ने लिखा है प्रभु मैं किहिं विधि थुति करौं तेरी। गणधर कहत पार नहिं पावै, कहा बुधि है मेरी ॥ प्राक् जनम भरि सहजीभ धरि तुम जस होत न पूर । एक जीभ कैसे गुण गावै उलू कहै किमि सूर । - 0 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7