Book Title: Jain Bhakti Sahitya
Author(s): Mahendra Raijada
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 5
________________ जैन भक्ति साहित्य ६२६ ......................................................... . ... .. . .... सभी भक्त अपने आराध्य का स्मरण करते हैं । जैन भक्तों एवं आचार्यों ने स्मरण और ध्यान को पर्यायवाची कहा है। 'कल्याणमन्दिर स्तोत्र' में कहा गया है कि जिनेन्द्र के ध्यान से क्षणमात्र में यह जीव परमात्म-दशा को प्राप्त हो जाता है। भक्त के हृदय में अपने आराध्य के दर्शन की उत्कण्ठा सदैव बनी रहती है। जैन भक्त भट्टारक ज्ञानभूषण ने 'आदीश्वर फागु' में बालक आदीश्वर के सौन्दर्य का वर्णन किगा है-"देखने वाला ज्यों-ज्यों देखता जाता है उसके हृदय में वह बालक अधिकाधिक भाता जाता है । तीर्थकर का जन्म हुआ है और इन्द्र टकटकी लगाकर उसे देखने लगे, किन्तु तृप्त नहीं हुए तो सहस्र नेत्र धारण कर लिये, फिर भी तृप्ति न मिल सकी। महात्मा आनन्दघन ने लिखा है कि मार्ग को निहारते-निहारते आँखें स्थिर हो गयी हैं। जैसे योगी समाधि में हो, वियोग की बात किससे कही जावे, मन को तो भगवान के दर्शन करने से ही शान्ति प्राप्त होती है पंथ निहारत लोयणे, द्रग लगी अडोला । जोगी सुरत समाधि में, मुनि ध्यान अकोला । कौन सुनै किनहुं कहुं, किम मांडू मैं खोला । तेरे मुख दीठे हले, मेरे मन का चोला । जैन भक्त कवियों ने अपने अन्तर् में 'आत्मराम' के दर्शन की बात बहुत कही है। उनके दर्शन से चरम आनन्द की अनुभूति होती है और यह जीव स्वयं भी 'परमातम' बन जाता है। आनन्दतिलक ने अपने ग्रन्थ-"महानन्दिदेउ” में लिखा है-"अप्प बिदु'ण जाणति रे। घट महि देव अणतु।" कवि ब्रह्मदीप ने "अध्यात्मबावनी" में लिखा है-"जै नीकै धरि घटि माहि देखे, तो दरसनु होइ तबहि सबु पेखै।" कविवर बनारसीदास के कथनानुसार 'घट में रहने वाले उस परमात्मा के रूप को देखकर महा रूपवन्त थकित हो जाते हैं, उनके शरीर की सुगन्ध से अन्य सुगन्धियाँ छिप जाती है । (ग्रन्थ-बनारसीविलास) __ भक्त को जब 'आत्मराम' के दर्शन प्राप्त होते हैं तो उसे केवल हृदय में ही आनन्द की अनुभूति नहीं होती वरन उसे सारी पृथ्वी आनन्दमग्न दिखाई देती है। कवि बनारसीदास ने प्रिय आतम के दर्शन से सम्पूर्ण प्रकृति को श्री प्रफल्लित दरसाया है । उसी प्रकार कवि जायसी ने 'पदमावत' में सिंहलद्वीप से आये रतनसेन को जब नागमती ने देखा तो उसे सम्पूर्ण विश्व हराभरा दिखाई दिया। जैन भक्त कवियों ने आध्यात्मिक आनन्द पर ही अधिक बल दिया है। जैन भक्ति में समर्पण की भावना का प्राधान्य है । आचार्य समन्तभद्र ने 'स्तुतिविद्या' में लिखा है-"प्रज्ञा वही है, जो तुम्हारा स्मरण करे, शिर वही है, जो तुम्हारे पैरों पर विनत हो, जन्म वही है, जिसमें आपके पादपद्मों का आश्रय लिया गय हो; आपके मत में अनुरक्त रहना ही मांगल्य है; वाणी वही है जो आपकी स्तुति करे और विद्वान वही है जो आपके समक्ष रहे"। यशोविजय ने 'पार्श्वनाथ स्तोत्र' में, श्री धर्मसूरि ने 'श्रीपार्श्वजिनस्तवनम' में, आनन्दमाणिक्यगणि ने 'पार्श्वनाथस्तोत्र' में भी इसी प्रकार के विचार प्रगट किये हैं। हिन्दी भक्त कवियों ने भी इसी सरस परम्परा का निर्वाह किया है। कबीर आदि हिन्दी के निर्गुण भक्ति कवियों की साखियों और पदों में 'चेतावनी को अंग' का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस अंग में सन्तों ने अपने मन को संसार के माया-मोह से सावधान किया है । जैन तथा बौद्ध भक्ति साहित्य में यह चेतावनी वाली बात अधिक मिलती है, क्योंकि ये दोनों धर्म विरक्तिप्रधान हैं । जैन भक्ति साहित्य में अनेक कवियों ने इसी प्रकार के अत्यन्त सरस पदों की रचना की है। उदाहरणार्थ-जैन भक्ति कवि भूधरदास ने अनेक प्रसाद गुण-युक्त श्रेष्ठ पदों की रचना की है, उनमें से निम्न पद द्रष्टव्य है भगवंत भजन क्यों भूला रे। यह संसार रैन का सपना, तन धन वारि बबूला रे ।। इस जीवन का कौन भरोसा, पावक में तूल पूला रे। काल कुदाल लिये सिर ठाडा, क्या समझे मन फूला रे॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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