Book Title: Jain Bhakti Sahitya Author(s): Mahendra Raijada Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 3
________________ . .... . .... जैन भक्ति साहित्य ६२७ ................................................................... ..... ___ 'अध्यात्म-सवैया' जैन भक्तकवि पाण्डे रूपचन्द की कृति बतलाई जाती है। डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल का यह मत है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के अन्त में 'इतिश्री अध्यात्म रूपचन्द कृत कवित्त समाप्त' लिखा है किन्तु रूपचन्द नाम के चार कवि हुए हैं इनमें से दो समकालीन थे जो कि उच्चकोटि के विद्वान थे। जैन भक्ति में 'निष्कल' और 'सकल' शब्दों का विशेष महत्त्व है। आचार्य योगीन्दु ने अपने ग्रन्थ 'परमात्मप्रकाश' में 'सिद्ध' को निष्कल कहा है । ब्रह्मदेव ने लिखा है-'पञ्चविधशरीररहितः निष्कल:' । अर्हन्त 'सकल' ब्रह्म कहलाते हैं । अर्हन्त उसे कहते हैं जो चार घातिया कर्मों का नाश करके परमात्मपद को प्राप्त होता है। अर्हन्त का का परम औदारिक शरीर होता है। अत: ये सशरीर कहलाते हैं। निष्कल' और 'सकल' में अशरीर और सशरीर का ही भेद है अन्यथा दोनों ही आत्मा परमात्मतत्त्व की दृष्टि से समान हैं । प्रत्येक निष्कल' पहले 'सकल' बनता है, क्योंकि बिना शरीर धारण किये और बिना केवलज्ञान प्राप्त किये कोई भी जीव सकल निष्कल नहीं बन सकता। जैन भक्तकवियों ने निष्कल और अर्हन्त अथवा सकल दोनों के ही गुणों का गान किया है । भट्टारक शुभचन्द्र ने 'तत्त्व सारदूत' ग्रन्थ में और मुनि चरित्रसेन ने अपनी 'सम्माधि' कृति में निष्कल और सकल के अनेक गीत गाये हैं। जैन भक्ति-साहित्य में दाम्पत्य रति प्रमुख है। जैन कवियों ने चेतन को पति और सुमति को पत्नी बताया है । पति-पत्नी के प्रेम में जो शालीनता होती है जैन भक्तकवियों ने उसका सुन्दर निर्वाह किया है । कवि बनारसीदास की “अध्यात्मपदपंक्ति", भैया भगवतीदास की 'अतअष्टोत्तरी', मुनि विनयचन्द की 'चूनरी', द्यानत राय, भूधरदास तथा जगराम आदि के पदों में दाम्पत्य रति के अनेक उदाहरण द्रष्टव्य हैं। इस दाम्पत्यरति के चित्रण में जैन भक्तकवियों ने पूर्ण मर्यादा का पालन किया है । "आध्यात्मिक विवाह" एक रूपक काव्य है। मेरुनन्दन उपाध्याय का 'जिनोदयसूरी विवाहउल', उपाध्याय जयसागर का 'नेमिनाथ विवाहलो', कुमुदचन्द का 'ऋषभ विवाहलो' तथा अजयराज पाटणी का 'शिवरमणी का विवाह' इस प्रकार के ग्रन्थों में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं। "आध्यात्मिक फागुओं' की रचनाएँ भी जैन भक्त कवियों ने की है जिसमें जैन भक्त चेतन और सुमति आदि अनेक पत्नियों के साथ होली खेलता रहा है । चेतन की पत्नियाँ 'आध्यात्मिक चूनड़ी' पहनती है। कबीर की 'बहुरिया' ने भी चूनड़ी पहनी है। नेमिनाथ और राजीमती से सम्बन्धित मुक्तक और खण्डकाव्यों में जिस प्रेम की अभिव्यंजना हुई है, वह भी लौकिक नहीं, दिव्य है । वैरागी पति के प्रति पत्नी का प्रेम सच्चा है और वह भी वैराग्य से युक्त है। ___ मध्यकालीन जैन भक्त कवियों ने अपभ्रंश से प्रभावित होकर रहस्यवाद की तो चर्चा की है, किन्तु वे तन्त्रवाद से मुक्त हैं। इन कवियों में भावात्मक अनुभूति की प्रधानता है। आचार्य कुन्दकुन्द में भी भावात्मक अनुभूति का आधिक्य है। पाण्डे रूपचन्द ने अपने ग्रन्थ 'अध्यात्म-सवैया' में लिखा है कि आत्मब्रह्म की अनुभूति से यह चेतन दिव्य प्रकाश से युक्त हो जाता है। उसमें दिव्य ज्ञान प्रकट होता है और वह अपने आप में ही लीन होकर परमानन्द का अनुभव करता है। जैन भक्त कवियों में रहस्यवादी-गीतों की सृष्टि करने वालों में सकलकीति का 'आराधनाप्रतिबोधसार', चरित्रसेन का 'सम्माधि', शुभचन्द्र का तत्त्वसारदूत', सुन्दरदास की 'सुन्दर सतसई', हेमराज का हितोपदेश बावनी' तथा किशनसिंह का 'चेतनगीत' आदि प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। जैन भक्ति साहित्य में सतगुरु का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने अर्हन्त और सिद्ध को ही सतगुरु की संज्ञा दी है जो कि ब्रह्म का पर्याय है । कबीर का गुरु ब्रह्म से अलग है । कबीर ने गुरु को ब्रह्म से बड़ा कहा है । जैन भक्तों के अनुसार गुरु सम्यक्-पथ (मोक्ष-मार्ग) का निर्देशक है । जैन गुरु-भक्ति में अनुराग का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है । रल्ह की 'जिनदत्त चौपाई' कुशललाभ का 'श्रीपूज्यवाहणगीतम्', साधुकीति का 'जिनचन्द्र सूरिगीतम' तथा जीवराज का 'सुगुरुशतक' अनुसयात्मक भक्ति की श्रेष्ठ कृतियाँ हैं। जैन भक्त कवियों ने भगवान से याचनाएँ की हैं, क्योंकि उनका यह दृढ़ विश्वास है कि जिनेन्द्र की प्रेरणा से ही उन्हें सामर्थ्य प्राप्त होती है, जिसे प्रेरणाजन्य कर्तव्य की संज्ञा भी दी जाती है। जिनेन्द्र का सौन्दर्य प्रेरणा का अक्षय पुज है। 'स्वयम्भू स्तोत्र' में आचार्य समन्तभद्र ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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