Book Title: Jain Bhakti Sahitya
Author(s): Mahendra Raijada
Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf

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Page 2
________________ +1. Jain Education International ६२६ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ पंचम खण्ड द्वैत की चर्चा करते हैं और जब संसार को ब्रह्म में बताते हैं तो अद्वैत की बात करते हैं। इसी 'द्वताद्वैत' की झलक कबीर की वाणी में पाई जाती है। मध्यकालीन जैन भक्तकवियों में अनेकान्तात्मक प्रवृत्ति पाई जाती है जिसमें एक ही ब्रह्म के एकानेक, मूत मूर्त, विरोधाविरोध, भिन्न-भिन्न आदि अनेक रूप द्रष्टव्य हैं । मध्यकाल के जैन भक्त कवि श्री बनारसीदास ने ब्रह्म के 'एकानेक' रूप के सम्बन्ध में लिखा है देसी यह ब्रह्म विराजित याकी दसा सब पाही को सोहै । एक में अनेक अनेक में एक लिये दुविधा मह दी है। आप संसार त अपनी पद, आयु बिसारि के आहि मोहे । व्यापक रूप यहै घट अन्तर ग्यान में कौन अग्यान में को है ।। मुनि आनन्दघन ने कुण्डल और कनक का प्रसिद्ध उदाहरण प्रस्तुत किया है कि कुण्डल आदि पर्याय में अनेक - रूपता रखते हुए भी स्वर्ण के रूप में एक ही है। उसी प्रकार ब्रह्म अपने एकानेक स्वरूप को प्रकट करता है । हिन्दी निर्गुण भक्ति काव्य के मूल स्रोत में जैन भक्तिधारा भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है । मध्यकाल में अनेक जैन भक्त कवि हुए है जिन्होंने तीर्थकरों के माध्यम से जैन भक्ति काव्य की प्रचुर मात्रा में सृष्टि की है। तीयंकर का जन्म होता है, पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा होती है। वह स्वयं अपने तप और ध्यान के द्वारा धर्म का प्रवर्तन करते हैं, उनकी आत्मा तम होती है और वे शरीर से मुक्त हो सिद्ध हो जाते हैं। किन जन्म होता है और न मरण यही है निर्वाण और निःसंग सीर को सगुण और सिद्ध को निर्गुण ब्रह्म कहा जा सकता है एक ही जीन तीर्थकर और सिद्ध दोनों ही हो सकता है । अतः उसका नितान्त विभाजन सम्भव नहीं ।' डा० प्रेमसागर जैन । " जैन भक्तिकाव्य संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में स्तुति स्तोत्रों के रूप में उपलब्ध होता है। विक्रम की प्रथम शताब्दी से इसका क्रम प्रारम्भ होकर निरन्तर चलता रहा। मुक्तक काव्य रचना का यह प्रवाह आगे चलकर हिन्दी पदकाव्य मंदाकिनी के रूप में निरन्तर प्रवहमान रहा। वास्तव में हिन्दी जैन पद- साहित्य अपने आप में अलग से शोध का विषय है । हिन्दी जैन- भक्ति साहित्य प्रबन्ध-काव्य के रूप में भी उपलब्ध होता है। रामकाव्य की तो इसमें एक लम्बी परम्परा उपलब्ध होती है। इनमें कहीं-कहीं कृष्ण की कथाएं भी निबद्ध हैं। विक्रम की पहली शताब्दी में प्राकृत के प्रसिद्ध कवि विमलसूरि का पउमचरियं' एक प्रसिद्ध रचना है। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता है रामायण के पात्रों का मानवीकरण । मध्यकाल में भक्तकवि रविषेण के पद्मपुराण के अनेक अनुवाद हिन्दी में रचे गये। इसके अतिरिक्त रामचन्द्र का 'सीताचरित' भाव और भाषा दोनों ही दृष्टियों से एक उत्कृष्ट कृति है । १७वीं शती में पं० भगवतीदास ने 'बृहत्सीतासुतु' की रचना की। उसके अतिरिक्त ब्रह्मजयसागर का 'सीताहरण' एक महत्त्वपूर्ण रचना है जो कि एक खण्डकाव्य के रूप में लिखी गई है। भट्टारक महीचन्द का लवकुशछप्पय' रामकथा के आधार पर लिखा गया है। इसी १७वीं शती की एक अन्य सुन्दर कृति है ब्रह्मराममल्ल का 'हनुमच्चरित' । जैन परम्परा के २२वें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के साथ कृष्ण और वसुदेव का नाम भी जुड़ा हुआ है । कवि भाऊ का 'नेमीश्वररास' नामक एक ग्रन्थ और उपलब्ध हुआ है, इसमें १५५ पद हैं । जैन भक्ति साहित्य के निर्माण में भट्टारकों, सूरियों और सन्तों का विशेष योगदान रहा है। वास्तव में जैन भक्तिकाव्य की रचना करने वाले एक ही नाम के अनेक कवि हुए हैं। ज्ञानभूषण नाम के चार भट्टारक हुए हैं, इनमें से 'आदिश्वर फागु' ग्रन्थ के वास्तविक रचयिता की खोज करना अत्यन्त कठिन है। इसी प्रकार चार रूपचन्द और चार भगवतीदास मिलते हैं। आनन्दघनों की भी बहुतायत है । कवि रत्नभूषण ने हिन्दी में 'ज्येष्ठ जिनवरपूजा,' 'त्रिपुलपुण्ण', 'रत्नभूषणस्तुति' तथा 'तीर्थनयमाला' ग्रन्थों की रचना की है। ब्रह्म जयसागर जैन भक्ति साहित्य के सामर्थ्यवान कवि माने जाते हैं, इन्होंने 'सीताहरण', 'अनिरुद्धहरण' और 'सागरचरित' वे तीन प्रबन्धकार लिखे हैं। इन ग्रन्थों का कथानक व प्रबन्धनिर्वाह अत्यन्त सुन्दर बन पड़ा है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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