Book Title: Jain Bhakti Sahitya Author(s): Mahendra Raijada Publisher: Z_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf View full book textPage 1
________________ . .. .. ........................................................ ...... जैन भक्ति साहित्य प्रो० महेन्द्र रायजादा अध्यक्ष, स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग, श्रीकल्याण राजकीय महाविद्यालय, सीकर भारतवर्ष में वैदिक, वैष्णव, शाक्त, बौद्ध, जैन, सिक्ख तथा लिंगायत आदि धर्म के अनेक पन्थ प्रचलित एवं प्रसिद्ध हैं। ये विभिन्न धर्मपन्थ हमारे देश की संस्कृति की अध्यात्मपरक चिन्तनधाराएं हैं। इन धर्मधाराओं के प्रवर्तकों, साधुओं, प्रचारकों एवं कवियों ने अपने दार्शनिक एवं आध्यात्मिक विचारों के परिप्रेक्ष्य में मानव-जीवन को विशुद्ध, समृद्ध एवं कृतार्थ बनाने हेतु नवीन-नवीन क्षेत्र खोजे हैं एवं जीवन का विपुल अध्ययन एवं साक्षात्कार किया है। धर्म प्रचारकों एवं कवियों ने समय-समय पर अपने पन्थ की मूल प्रवृत्तियों एवं सिद्धान्तों का रहस्योद्घाटन तथा विवेचन करते समय अपने मौलिक विचारों एवं निजी अनुभवों का भी उसमें थोड़ा बहुत समावेश किया है। मूल आर्य एक सरिता की भांति अपने उद्गम से प्रवाहित होता हुआ अपने सुदीर्घ प्रवाह में मार्ग में पड़ने वाले स्थलों के जल को भी ग्रहण एवं आत्मसात करता हुआ निरन्तर प्रवहमान रहता है। वैदिक धर्म आगे बढ़कर सनातन धर्म हुआ और आज हिन्दू-धर्म के नाम से अभिहित किया जाता है। एक ही धर्म की धारा से अनेक पन्थों की धाराएँ तथा शाखा-प्रशाखाएँ फूटी हैं। हमारे देश के सभी धर्मों में आदान-प्रदान भी होता रहा है और इसी कारण हमारा सांस्कृतिक जीवन अत्यन्त सहिष्णु एवं समृद्ध रहा है । लगभग सभी धर्मों में भक्ति को अधिक महत्त्व दिया गया है। एक भी धर्म ऐसा नहीं है जिसमें भक्ति को प्रधानता नहीं दी गई हो । ज्ञानमार्गी एवं अद्वैतवादी जगद्गुरु शंकराचार्य जो कि 'ज्ञानादेव तु कैवल्यम्' में विश्वास रखते थे उन्हें भी यह कहना पड़ा 'मोक्षकारणसामग्र्यां भक्तिरेव गरीयसी'। इसी प्रकार ज्ञानमार्ग में अटूट विश्वास रखने वाले जैनियों को भी भक्ति की महिमा को स्वीकार करना पड़ा । वास्तव में भक्ति ही निरन्तर प्रवाहित रहने वाली रसमयी प्रवृत्ति है। जैन जीवन दृष्टि ने जिनेन्द्र आदि चाहें कोई भी नाम स्वीकारा हो; किन्तु उन्होंने अपनी निष्ठा आत्मतत्त्व को समर्पित की है; क्योंकि आत्मा का अर्पण तो आत्मदेव को ही हो सकता है और इसी आत्मदेव की भक्ति को सभी ने अपने ढंग से उपासना करने के लिए अपनाया है । धर्म के विविध पन्थों की जीवन पद्धतियों में कितना भी अन्तर रहा हो, किन्तु सभी धर्मों के अनुयायियों, भक्तों एनं कवियों ने अपनी आत्मा एवं हृदय की वाणी को पूर्ण निष्ठा एवं श्रद्धा के साथ अपने आराध्य देव को अर्पित किया है। डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी के मतानुसार हिन्दी भक्तिकाल के आरम्भ में उस समय प्रचलित बारह सम्प्रदाय नाथ सम्प्रदाय में अन्तर्भुक्त थे। उनमें 'पारस' और 'नेमी' नामक दो सम्प्रदाय भी ये । जैनियों के बाईसवें तीर्थकर नेमिनाथ के नाम पर नेमीसम्प्रदाय तथा तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के नाम पर 'पारस-सम्प्रदाय' प्रचलित हुआ। नेमीसम्प्रदाय दक्षिण में तथा पारस-सम्प्रदाय उत्तरी भारत में अधिक फैला था। हिन्दी के सन्त कवि कबीरदास पर भी इस सम्प्रदाय का थोड़ा-बहुत प्रभाव अवश्य पड़ा था। कबीर की 'निर्गुण' में 'गुण' और 'गुण' में 'निर्गुण' वाली बात (निरगुन में गुन और गुन में निरगुन) कि गुण निर्गुण का तथा निर्गुण गुण का विरोधी नहीं है तथा संसार के घट-घट में निर्गुण का वास है । निर्गुण का अर्थ है गुणातीत और गुण का अर्थ है प्रकृति का विकार सत्, रज और तम। कबीर के इसी निर्गुण को सातवीं शताब्दी में अपभ्रंश भाषा के जैन कवियों ने निष्कल कहा है । जैन मुनि रामसिंह ने 'दोहापाहड' में लिखा है- 'तिहुयणिदीसइ देउजिण जिणवरि तिहुवणु एउ।' वे ब्रह्म को संसार में बसा बताते हैं तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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