Book Title: Jain Agamo me Nihit Ganitiya Adhyayan ke Vishay Author(s): Anupam Jain, Sureshchandra Agarwal Publisher: USA Federation of JAINA View full book textPage 4
________________ ७८ अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल ने षट्खण्डागम के प्रथम तीन अध्यायों पर १२००० श्लोक प्रमाण परिकर्म नामक टीका लिखी थी। वीरसेन ( ८२६ ई०) कृत धवला में 'परियम्म सुत्तं' नामक ग्रन्थ का गणित ग्रन्थ के रूप में अनेकशः उल्लेख हआ है। महावीराचार्य (८५० ई०) कृत गणितसारसंग्रह का एक अध्याय भी परिकर्म व्यवहार है जिसमें अष्ट परिकर्मों की चर्चा है।' यद्यपि ब्रह्मगुप्त ( ६२८ ई० ) ने २० परिकर्मों का उल्लेख किया है। तथापि भारतीय गणितज्ञों ने मौलिक परिकर्म ८ ही माने हैं जो कि ब्रह्मगुप्त के निम्नांकित २० परिकर्मों में से प्रथम ८ हैं। १. संकलन ( जोड़) ९-१३. पाँच जातियाँ ( भिन्न संबंधी) २. व्यकलन ( घटाना) १४. राशिक ३. गुणन १५. व्यस्त राशिक ४. भाग १६. पंच राशिक ५. वर्ग १७. सप्त राशिक ६. वर्गमूल १८. नव राशिक ७. धन १९. एकादश राशिक ८. घनमूल २०. भाण्डप्रतिभाण्ड वस्तुतः मूलपरिकर्म तो संकलन एवं व्यकलन ही है। अन्य तो उनसे विकसित किये जा सकते हैं। मिस्र, यूनान एवं अरबवासियों ने द्विगुणीकरण एवं अर्धीकरण को भी मौलिक परिकर्म माना है। किन्तु भारतवासियों ने नहीं माना है, क्योंकि दाशमिक स्थान मान पद्धति से भिज्ञ लोगों के लिए इन परिकर्मों का कोई महत्त्व नहीं है। अभिधान राजेन्द्र कोश में चुणि को उद्धृत करते हुए लिखा गया है कि परिकर्म गणित की वह मूलभूत क्रिया है जो कि विद्यार्थी को विज्ञान के शेष एवं वास्तविक भाग में प्रवेश के योग्य बनाती है। इनकी संख्या १६ है । ३ भारतीय गणितज्ञों के लिये ये परिकर्म इतने सरल एवं सहज थे कि उच्चस्तरीय ग्रन्थों में इनका कोई विशेष विवरण नहीं मिलता। इसो तथ्य के आधार पर दत्त महोदय ने लिखा है कि इन साधारण परिकर्मों में से अधिकांश का उल्लेख सिद्धांत ग्रन्थों में नहीं मिलता। अग्रवाल ने लिखा है कि "इससे यह प्रतीत होता है कि गणित की मूल प्रक्रियायें चार ही मानी गई है-संकलन, व्यकलन, गणन एवं भजन । इन चारों क्रियाओं के आधार पर ही परिकर्माष्टक का गणित विकसित हुआ है। उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है परिकम्म का अर्थ गणित को मूलभूत प्रक्रियायें ही हैं एवं परिकम्म शब्द का आशय अंकगणित के परिकर्म से ही है। १. आपने अत्यंत सरल होने के कारण संकलन एवं व्यकलन की विधियों की चर्चा नहीं की है। २. देखें सं०-४, पृ० ११८ । ३. देखें सं०-३, पृ. २४ । ४. देखें सं०-१, पृ० ३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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