Book Title: Jain Agamo me Nihit Ganitiya Adhyayan ke Vishay
Author(s): Anupam Jain, Sureshchandra Agarwal
Publisher: USA Federation of JAINA

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Page 7
________________ जैन आगमों में निहित गणितीय अध्ययन के विषय रज्जु, पल्य आदि की गणना सामान्य परिकर्मों से असंभव है। धनांगुल, जगश्रेणी एवं प्रल्य को अपने सामान्य अर्थ में प्रयुक्त करने परपल्योपम के अर्हच्छेद असंख्यात जगश्रेणी = ७ राजू = धनांगुल यदि पल्योपम P होतो log2p/असंख्यात राजू- धनांगुल स्पष्टतः राजू ( रज्जु ) एक असंख्यात राशि' हुई। असंख्यात संकेन्द्रो वलयाकार वृत्तों की शृंखला में अन्तिम स्वयंभूरमण द्वीप का व्यास रज्जु बताया गया है। फलतः इस विधि से भी इसका मान असंख्यात ही मिलता है। प्रो० घासीराम जैन ने आइंस्टीन के विवादास्पद संख्यात फैलने वाले लोक की त्रिज्या के आधार से प्राप्त घनफल की लोक के आयतन स तुलना करके रज्जु ( राजू ) का मान प्राप्त किया। यह मान १.४५ x १०२१ मील एवं १.६३ x १०२१ मील है । एक अन्य रीति से यह मान १.१५४१०१ मील प्राप्त होता है। किन्तु घासीराम जैन द्वारा उद्धृत मान अपूर्ण है, क्योंकि ये सभी कल्पनाओं एवं अभिधारणाओं पर आश्रित हैं। रज्जु को तो असंख्यात रूप में हो स्वीकार करना उपयुक्त है। यह स्वीकार करने में किंचित् भी संकोच नहीं होना चाहिये कि रज्जु शब्द शुल्व काल के तुरन्त बाद से भारतीय गणित में क्षेत्रगणित के सन्दर्भ में आया है। भले ही वह मापने वाली रस्सी रहा हो या मापन क्रिया। यह शब्द रेखागणित तथा त्रिभुज, चतुर्भुज की चारों भुजाओं के योग के रूप में भी प्रयुक्त हुआ है। तथापि यह आवश्यक नहीं है कि यह इस गाथा या सिद्धान्त ग्रन्थों में भी इसी अर्थ में आया हो। इस विषय के विस्तार में न जाकर हम यहाँ इतना कहना , उचित समझते हैं कि प्रस्तुत गाथा में रज्जु शीर्षक हमें उस विषय की ओर इंगित करता है जिसमें लोक के विस्तार, लोक संरचना, जघन्य परीत एवं जघन्य युक्त एवं जघन्य असंख्यात का गणित समाहित है। यदि हम यह कहें कि रज्जु का प्रमाण लोकोत्तर प्रमाण की ओर इंगित करता है तो अनुपयुक्त न होगा। शब्दों के अर्थ काल परिवर्तन.विषय परिवर्तन. सन्दर्भ परिवर्तन से कितने बदल जाते हैं। यह विषय भाषाविज्ञान के वेत्ताओं हेतु नया नहीं है। हमारे विचार से रज्जु की व्याख्या में अभयदेव एवं दत्त दोनों ही असफल रहे हैं एवं लक्ष्मीचन्द जैन ने सही दिशा की ओर संकेत किया है। १. देखें सं०-६, पृ० २२-२३ । २. देखें सं०-५, पृ० ९२ । ३. देखे सं०-११ पृ० २१५, २१६ । ११ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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