Book Title: Jain Agamo me Nihit Ganitiya Adhyayan ke Vishay
Author(s): Anupam Jain, Sureshchandra Agarwal
Publisher: USA Federation of JAINA

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Page 12
________________ ८६ अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल १०.विकप्पोत या कप्पो (विकल्प या कल्प)-पाठ (१) को स्वीकार करते हुए अभयदेवसूरि ने इसकी व्याख्या में लिखा है कि इससे लकड़ी की चिराई एवं पत्थरों की चिनाई का ज्ञान होता है।' पाटीगणित में इसे क्रकचिका व्यवहार कहते हैं। अभयदेव ने इसको उदाहरण से भी समझाया है। स्थानांगसूत्र के सभी उपलब्ध संस्करणों में हमें यही पाठ एवं अर्थ मिलता है किन्तु दत्त, कापड़िया, उपाध्याय, अग्रवाल एवं जैन आदि सभी ने इसे (२) रूप में उद्धृत किया है एवं इसका अर्थ विकल्प (गणित) किया है। विकल्प एवं भंग जैन साहित्य में क्रमचय एवं संचय के लिये आये हैं । जैन ग्रन्थों में इस विषय को विशुद्धता एवं विशिष्टता के साथ प्रतिपादित किया गया है। क्रकचिका व्यवहार, व्यवहारों का ही एक भेद होने तथा विकल्प ( अथवा भंग ) गणित के विषय का दार्शनिक विषयों की व्याख्या में प्रचुरता एवं अत्यन्त स्वाभाविक रूप से प्रयोग, यह मानने को विवश करता है कि विकल्पगणित जैनाचार्यों में ही नहीं अपितु प्रबुद्ध श्रावकों के जीवन में भी रच-पच गया था, तभी तो विषय के उलझते ही वे विकल्पगणित के माध्यम से उसे समझाने लगते थे। ऐसी स्थिति में विकल्पगणित को गणित विषयों की सूची में भी समाहित न करना समीचीन नहीं कहा जा सकता। उल्लेखनीय है कि विकल्प गणित कोई सरल विषय नहीं था तभी तो अन्य समकालीन लोगों ने इसका इतना उपयोग नहीं किया। जैन ही इसमें लाघव को प्राप्त थे। अतः विकप्पोत का अर्थ विकल्प ( गणित ) ही है । विषय के समापन से पूर्व विषय से सम्बद्ध कतिपय अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख भी आवश्यक है। आगम ग्रन्थों में चर्चित गणितीय विषयों की जानकारी देने वाली एक अन्य गाथा शीलांक ( ९वीं श० ई० ) ने सूत्रकृतांग की टीका में पुण्डरीक शब्द के निक्षेप के अवसर पर उद्धृत की है । गाथा निम्नवत् है परिकम्म रज्जु रासी ववहारे तह कला सवण्णे (सवन्ने) य ।। ५ ।। ' (पुद्गल ) जावं तावं घणे य धणे वग्ग वग्गवग्गे य ।' टीका के सम्पादक महोदय ने उपर्युक्त गाथा की संस्कृत छाण निम्न प्रकार की है। परिकम्मं रज्जु, राशि व्यवहारस्तया कलासवर्णश्च । पुद्गलाः यावत्तावत् भवन्ति धनं घनमूलं वर्गः वर्गमूलं ।। -(६) (५) इससे स्पष्ट है कि इस गाथा में भी विषयों की संख्या १० ही है किन्तु उसमें स्थानांग में आई गाथा के विकप्पोत के स्थान पर पुग्गल शब्द आया है। अर्थात् यहाँ पुद्गल को गणित अध्ययन का विषय माना गया है, विकल्प को नहीं । शेष नौ प्रकार स्थानांग के समान ही हैं । १. कल्पछेद गणित करवतण्डे काष्ठानुं छेदन तेना विषयवालु जे गणित से पाटियां क्राकच व्यवहार कहेवाय छे ( स्थानांगवृत्ति)। २. सूत्रकृतांग-श्रु तस्कन्ध-२, अध्याय-१, सूत्र-१५४ । ३, देखें सं०-३ १० १२० । ४. ठाणं, पृ० ९९४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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