Book Title: Jain Agamo me Nihit Ganitiya Adhyayan ke Vishay
Author(s): Anupam Jain, Sureshchandra Agarwal
Publisher: USA Federation of JAINA

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Page 2
________________ ७६ अनुपम जैन एवं सुरेशचन्द्र अग्रवाल (२) इस रूप में गाथा को दत्त', जैन एवं उपाध्याय ने उद्धृत किया है जबकि कापडिया' ने इसे निम्न रूप में उद्धृत किया है। परिकम्म (१) ववहारो, (२) रज्जु, (३) रासी, (४) कलासवन्ने, (५) य । जावंतवति, (६) वग्गो, (७) घणो (८) त तह वग्गवग्गो (९) वि कप्पोत ।। ३ ।। ठाणं" में (१) की संस्कृत छाया निम्न प्रकार दी गई है। परिकर्म व्यवहारः रज्जु राशिः कलासवर्ण च । यावत् तावत् इति वर्गः घनश्च तथा वर्गवर्गोपि ॥ कल्पश्च ॥ ४ ॥ स्थानांग की इस गाथा की वर्तमान में उपलब्ध सर्वप्रथम व्याख्या अभयदेव सूरि (१०वीं शती ई०) द्वारा की गई। स्थानांग की टीका में उपर्युक्त गाथा में आये विषयों का अर्थ स्पष्ट करते हुये उन्होंने निर्धारित किया कि : १. परिकम्मं = संकलन आदि । २. ववहारो -श्रेणी व्यवहार या पाटी गणित । ३. रज्जु समतल ज्यामिति । ४. रासो = अन्नों की ढेरी । ५. कलासवण्णे - प्राकृतिक संख्याओं का गुणन या संकलन । ६. वग्गो . = वर्ग। ७. धणो = धन । ८. वग्गवग्गो - चतुर्थघात । ९. कप्पो = क्रकचिका व्यवहार । दत्त' ( १९२९ ) ने लगभग ९०० वर्षों के उपरान्त उपयुक्त व्याख्या को अपूर्ण एवं एकांगी घोषित करते हुए अपनी व्याख्या प्रस्तुत की। दत्त के समय में भी जैन गणित का ज्ञान अत्यन्त प्रारंभिक था एवं गणितीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण, वर्तमान में उपलब्ध ग्रन्थ उस समय तक अप्रकाशित एवं अज्ञात थे तथापि उनकी व्याख्या अभयदेवसूरि की व्याख्या की अपेक्षा तर्कसंगत प्रतीत होती है । उन्होंने उपर्युक्त दस शब्दों की व्याख्या निम्न प्रकार दी। १. देखें सं०--३, पृ० ११९ । २. देखें सं०-८, पृ० ३७ इन्होंने कलासवण्णो के स्थान पर "कलासवन्ने" पाठ लिया है। ३. देखें सं-११ पृ० २६ । ( आपने विकप्पो त को विकप्पोत रूप में लिखा है। इन दोनों पाठान्तरों से कोई अन्तर नहीं पड़ता। जबकि (१) एवं (२) के पाठों में......."वि ॥ 'कप्पो य' तथा 'विकप्पो त' का अंतर द्रष्टव्य है। ४. देखें सं०-१०, पृ० १२ । ५. ठाणं, पृ० ९२६ । ६. देखें सं० ३, पृ० ११९-१२२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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