Book Title: Jain Agamo ki Mul Bhasha Ardhamagadhi ya Shaurseni Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 4
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि मात्र इतना ही नहीं, दिगम्बर परम्परा में मान्य आचार्य अर्थात् 'अर्धमागधी' रही है, यह मानना होगा । कुन्दकुन्द के ग्रन्थ बोधपाहुड, जो स्वयं शौरसेनी में निबद्ध २. इसके विपरीत शौरसेनी आगम तुल्य मान्य ग्रन्थों है, उसकी टीका में दिगम्बर आचार्य श्रुतसागर जी लिखते में किसी एक भी ग्रन्थ में एक भी सन्दर्भ ऐसा नहीं है, हैं कि भगवान् महावीर ने अर्धमागधी भाषा में अपना जिससे यह प्रतिध्वनित भी होता हो कि आगमों की मूल उपदेश दिया। प्रमाण के लिए उस टीका के अनुवाद का भाषा शौरसेनी प्राकृत थी। उनमें मात्र यह उल्लेख है कि वह अंश प्रस्तुत है - "अर्धमगध देश भाषात्मक और तीर्थंकरों की जो वाणी खिरती है, वह सर्वभाषारूप परिणत अर्ध सर्वभाषात्मक भगवान् की ध्वनि खिरती है। शंका होती है। उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि उनकी अर्धमागधी भाषा देवकृत अतिशय कैसे हो सकती है, वाणी जन साधारण को आसानी से समझ में आती थी। क्योंकि भगवान की भाषा ही अर्धमागधी है? उत्तर - वह लोक-वाणी थी। उसमें मगध के निकटवर्ती क्षेत्रों की मगध देव के सानिध्य में होने से।" आचार्य प्रभाचन्द्र ने क्षेत्रीय बोलियों के शब्द रूप भी होते थे और यही कारण नन्दीश्वर भक्ति के अर्थ में लिखा है, "एक योजन तक था कि उसे मागधी न कहकर अर्धमागधी कहा गया था। भगवान् की वाणी स्वयमेव सुनाई देती है। उसके आगे ३. जो ग्रन्थ जिस क्षेत्र में रचित या सम्पादित होता संख्यात योजनों तक उस दिव्य-ध्वनि का विस्तार मगध है, उसका वहाँ की बोली से प्रभावित होना स्वाभाविक जाति के देव करते हैं। अतः अर्धमागधी भाषा देवकृत है। है। प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा - आचारांग, सूत्रकृतांग, (षट्प्राभृतम् चतुर्थ बोधपाहुड टीका पृ. १७६/२१) इसिभासियाई (ऋषिभाषित), उत्तराध्ययन, दशवैकालिक मात्र यही नहीं, वर्तमान में भी दिगम्बर-परम्परा के आदि मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में रचित हैं। महान् संत एवं आचार्य विद्यासागर जी के प्रमुख शिष्य उनमें इसी क्षेत्र के नगरों आदि की सूचनाएँ हैं। मूल मुनि श्री प्रमाणसागर जी अपनी पुस्तक जैन धर्म दर्शन पृष्ठ आगमों में एक भी ऐसी सूचना नहीं हैं कि महावीर ने ४० में लिखते हैं कि "उन भगवान् महावीर का उपदेश बिहार, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आगे विहार सर्वग्राह्य 'अर्धमागधी' भाषा में हुआ।" किया हो। अतः उनकी भाषा अर्धमागधी रही होगी। जब श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ यह ४. पुनः आगमों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में और मानकर चल रही हैं कि भगवान् का उपदेश अर्धमागधी में __ दूसरी वाचना खण्डगिरी (उड़ीसा) में हुई। ये दोनों क्षेत्र हुआ था और इसी भाषा में उनके उपदेशों के आधार पर मथुरा से पर्याप्त दूरी पर स्थित हैं। अतः कम से कम प्रथम आगमों का प्रणयन हुआ तो फिर शौरसेनी के नाम से नया और द्वितीय वाचना के समय तक अर्थात् ईस्वी पूर्व दूसरी विवाद खड़ा करके इस खाई को चौड़ा क्यों किया जा रहा शती तक उनके शौरसेनी में रूपान्तरित होने का या उससे है? यह तो आगमिक प्रमाणों की चर्चा हुई। व्यावहारिक प्रभावित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। एवं ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं - यह सत्य है कि उसके पश्चात् जब जैन धर्म, एवं १. यदि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में विद्या का केन्द्र पाटलीपुत्र से हटकर लगभग ईस्वी पूर्व दिये तो यह स्वाभाविक है कि गणधरों ने उसी भाषा में प्रथम शती में मथुरा बना तो उस पर शौरसेनी का प्रभाव आगमों का प्रणयन किया होगा। अतः सिद्ध है कि आना प्रारम्भ हुआ हो। यद्यपि मथुरा से प्राप्त दूसरी शती आगमों की मूल भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित ‘मागधी' तक के अभिलेखों का शौरसेनी के प्रभाव से मुक्त होना ४६ जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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