Book Title: Jain Agamo ki Mul Bhasha Ardhamagadhi ya Shaurseni
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति का आलोक जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी? प्रो. डॉ. सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी जैन आगमों की मूलभाषा अर्धमागधी या शौरसेनी इस प्रश्न को लेकर कतिपय विद्वानों के बीच में मतभेद है। प्रो. श्री सागरमलजी जैन स्वयं शोध केंद्र के निदेशक रहे है तथा आगमों का एवं प्राकृत भाषा का उन्हें विशद ज्ञान है। इस आलेख के माध्यम से उनका यही स्पष्टीकरण है कि मूल आगमों की भाषा अर्धमागधी ही है न कि शौरसेनी। - सम्पादक वर्तमान में प्राकृत विया नामक शोध पत्रिका के माध्यम से जैन विद्या के विद्वानों का एक वर्ग आग्रहपूर्वक यह प्रतिपादन कर रहा है कि "जैन आगमों की मूल भाषा शौरसेनी प्राकृत थी, जिसे कालान्तर में परिवर्तित करके अर्धमागधी कर दिया गया"। इस वर्ग का यह भी दावा है कि शौरसेनी प्राकृत ही प्राचीनतम प्राकृत है और अन्य सभी प्राकृतें यथा - मागधी, पैशाची, महाराष्ट्र आदि इसीसे र विकसित हुई हैं, अतः वे सभी शौरसेनी प्राकृत से परवर्ती भी हैं। इसी क्रम में दिगम्बर परम्परा में आगमों के रूप में मान्य आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निहित अर्धगामधी और महाराष्ट्री शब्द रूपों को परिवर्तित करके उन्हें शौरसेनी में रूपान्तरित करने का एक सुनियोजित प्रयत्न भी किया जा रहा है। इस समस्त प्रचार-प्रसार के पीछे मूलभूत उद्देश्य यह है कि श्वेताम्बर-मान्य आगमों को दिगम्बर परम्परा में मान्य आगमतुल्य ग्रन्थों से अर्वाचीन और अपने शौरसेनी में निबद्ध आगमतुल्य ग्रन्थों को प्राचीन सिद्ध किया जाये। इस पारम्परिक विवाद का एक परिणाम यह भी हो रहा है कि श्वेताम्बर - दिगम्बर परम्परा के बीच कटुता की खाई गहरी होती जा रही है और इस सब में एक निष्पक्ष भाषाशास्त्रीय अध्ययन को पीछे छोड़ दिया जा रहा है। प्रस्तुत निबन्ध में मैं इन सभी प्रश्नों पर श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? ग्रन्थों के आलोक में चर्चा करने का प्रयल करूँगा। क्या आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था? यहाँ सर्वप्रथम मैं इस प्रश्न की चर्चा करना चाहूँगा कि क्या जैन आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था और उसे बाद में परिवर्तित करके अर्धमागधी रूप दिया गया? जैन विद्या के कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि जैन आगम साहित्य मूलतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध हुआ था और उसे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित किया गया। अपने इस कथन के पक्ष में वे श्वेताम्बर, दिगम्बर किन्हीं भी आगमों का प्रमाण न देकर प्रो. टाटिया के व्याख्यान से कुछ अंश उद्धृत करते हैं। डॉ. सुदीप जैन ने प्राकृत विद्या जनवरी-मार्च '६६ के सम्पादकीय में उनके कथन को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया है: हाल ही में श्री लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ में सम्पन्न द्वितीय आचार्य कुन्दकुन्दस्मृति व्याख्यानमाला में विश्वविश्रुत भाषाशास्त्री एवं दार्शनिक विचारक प्रो. नथमल जी टाटिया ने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि “श्रमण - साहित्य का प्राचीन रूप, चाहे वे बौद्धों के त्रिपिटक आदि हों, श्वेताम्बरों के आचारांगसूत्र, दशवैकालिकसूत्र आदि ४३ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि हों अथवा दिगम्बरों के षट्खण्डागमसूत्र, समयसार आदि प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट मत प्रकट किया कि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत में ही निबद्ध थे। उन्होंने आगे आचारांग, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और दशवैकालिक में सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद में श्रीलंका में एक अर्धमागधी भाषा का उत्कृष्ट रूप है"। बृहत्संगीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध बौद्ध साहित्य दूसरी और प्राकृत विद्या के सम्पादक डॉ. सुदीप जी का मागधीकरण किया और प्राचीन शौरसेनी निबद्ध बौद्ध का कथन है कि उनके व्याख्यान की टेप हमारे पास साहित्य ग्रंथों को अग्निसात कर दिया। इसी प्रकार श्वेताम्बर उपलब्ध है और हमने उन्हें अविकल रूप से यथावत् जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में ही दिया है। मात्र इतना ही नहीं, डॉ. सुदीप जी का तो यह था, जिसका रूप क्रमशः अर्धमागधी में बदल गया। यदि भी कथन है कि तलसीप्रज्ञा के खण्डन के बाद भी वे हम वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल श्वेताम्बर आगम साहित्य मानने पर जोर देंगें, तो इस अर्धमागधी टाटिया जी से मिले हैं और टाटिया जी ने उन्हें कहा है भाषा का आज से पन्द्रह सौ वर्ष के पहिले अस्तित्व ही कि वे अपने कथन पर आज भी दृढ़ हैं। टाटिया जी के नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को इस कथन को उन्होंने प्राकृत विद्या जुलाई - सितम्बर '६६ ५०० वर्ष ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा। उन्होंने स्पष्ट ___ के अंक में निम्नलिखित शब्दों मे प्रस्तुत किया है:किया कि आज भी आचारांगसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों __मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तुत में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है, जबिक नये तथ्यों पर पूर्णतः दृढ़ हूँ तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट प्रकाशित संस्करणों में उन शब्दों का अर्धमागधीकरण हो अवधारणा है जिससे विचलित होने का प्रश्न ही नहीं गया है। उन्होंने कहा कि पक्ष-व्यामोह के कारण ऐसे उठता है।” (पृ.६) परिवर्तनों से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूल रूप खो रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि दिगम्बर जैन यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों साहित्य में ही शौरसेनी भाषा के प्राचीन रूप सुरक्षित सम्पादकों के मध्य है, किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है उपलब्ध हैं।" और डॉ. टाटिया का मूल मन्तव्य क्या है? इसका निर्णय - प्राकृत विया, जनवरी-मार्च ६६ का सम्पादकीय । तो तभी सम्भव है जब डॉ. टाटियाजी स्वयं इस सम्बन्ध में लिखित वक्तव्य दें, किन्तु वे इस संबंध में मौन हैं। मैंने निस्संदेह प्रो. टाटिया जैन और बौद्ध दर्शन के वरिष्ठतम स्वयं उन्हें पत्र लिखा था, किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं विद्वानों में एक हैं तथा उनके कथन का कोई अर्थ और आधार भी होगा। किन्तु ये कथन उनके अपने हैं या उन्हें आया। मैं डॉ. टाटियाजी की उलझन समझता हूँ। एक अपने पक्ष की पुष्टि हेतु तोड़-मोड़ कर प्रस्तुत किया गया ओर कुन्दकुन्द भारती ने उन्हें उपकृत किया है, तो दूसरी है, यह एक विवादास्पद प्रश्न है, क्योंकि एक ओर तुलसी ओर वे जैन विश्वभारती की सेवा में रहे हैं, जब जिस प्रज्ञा के सम्पादक का कहना है कि टाटिया जी ने इसका मंच से बोले होंगे भावावेश में उनके अनुकूल वक्तव्य दे खण्डन किया है। वे तुलसी प्रज्ञा (अप्रैल जून, ६६ खण्ड दिये होंगे और अब स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें? फिर भी २२, अंक ४) में लिखते हैं कि "डॉ. नथमल टाटिया ने मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार नहीं करती हैं कि डॉ. टाटियाजी दिल्ली की एक पत्रिका में छपे और उनके नाम से प्रचारित जैसा गम्भीर विद्वान् बिना प्रमाण के ऐसे वक्तव्य दे दे। इस कथन का खण्डन किया है कि महावीर-वाणी शौरसेनी कहीं न कहीं शब्दों की कोई जोड़-तोड़ अवश्य हो रही ४४ जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति का आलोक है। डॉ. सुदीप जी प्राकृत विद्या, जुलाई - सितम्बर ६६ में डॉ. टाटिया जी के उक्त व्याख्यानों के विचार बिन्दुओं को अविकल रूप से प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं कि "हरिभद्र का सारा योगशतक धवला से है।" इसका तात्पर्य है कि हरिभद्र ने अपने योगशतक को धवला के आधार पर बनाया है। क्या टाटिया जी जैसे विद्वान् को इतना भी इतिहास बोध नहीं है कि योगशतक के कर्ता हरिभद्र सूरी और धवला के कर्ता में कौन पहले हुआ? यह तो ऐतिहासिक सत्य है कि हरिभद्रसूरि का योगशतक (आठवीं शती) धवला (१०वीं शती) से पूर्ववर्ती है। मुझे विश्वास भी नहीं होता है, कि टाटिया जी जैसा विद्वान् इस ऐतिहासिक सत्य को अनदेखा कर दे। कहीं न कहीं उनके नाम पर कोई भ्रम खड़ा किया जा रहा है। डा. टाटिया जी को अपनी चुप्पी तोड़कर भ्रम का निराकरण करना चाहिए। वस्तुतः यदि कोई भी चर्चा प्रमाणों के आधार पर नहीं होती तो उसे मान्य नहीं किया जा सकता, फिर चाहे उसे कितने ही बड़े विद्वान ने क्यों नहीं कहा हो। यदि व्यक्ति का ही महत्व मान्य है, तो अभी संयोग से टाटिया जी से भी वरिष्ठ अन्तर-राष्ट्रीय ख्याति के जैन-बौद्ध विद्याओं के महामनीषी और स्वयं टाटिया जी के गुरु पद्म विभूषण पं. दलसुख भाई हमारे बीच हैं, फिर तो उनके कथन को अधिक प्रमाणिक मानकर प्राकृत विद्या के सम्पादक को स्वीकार करना होगा। और यह सब प्रास्ताविक बातें थी, जिससे यह समझा जा सके कि समस्या क्या है, कैसे उत्पन्न हुई? हमें तो व्यक्तियों के कथनों या कर्तव्यों पर न जाकर तथ्यों के प्रकाश में इसकी समीक्षा करनी है कि आगमों की मूलभाषा क्या थी और अर्धमागधी और शौरसेनी में कौन प्राचीन है? आगमों की मूल भाषा अर्धमागधी ___यह एक सुनिश्चित सत्य है कि महावीर का जन्म-क्षेत्र और कार्य-क्षेत्र दोनों ही मुख्य रूप से मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में ही था। अतः यह स्वाभाविक है कि उन्होंने जिस भाषा को बोला होगा वह समीपवर्ती क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी अर्थात् अर्धमागधी रही होगी। व्यक्ति की भाषा कभी भी अपनी मातृभाषा से अप्रभावित नहीं होती। पुनः श्वेताम्बर-परम्परा में मान्य जो भी आगम साहित्य आज उपलब्ध है, उनमें अनेक ऐसे सन्दर्भ हैं, जिनमें स्पष्ट रूप से यह उल्लेख हैं कि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी भाषा में दिये थे। इस सम्बन्ध में अर्धमागधी आगम साहित्य से कुछ प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं, यथा - १. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। - समवायांग, समवाय ३४, सूत्र २२ २. तए णं समणे भगवं महावीरे कुणिअस्स भंभसारपुतस्स अद्धमागहीए भासाए भासत्ति अरिहाधम्म परिकहइ। - औपपातिक-सूत्र ३. गोयमा ! देवाणं अद्धमागहीए भासाए भासंति सवियण __ अद्धमागही भासा भासिजमाणी विसज्जति। - भगवई, (लाडनूं) शतक ५, उद्देशक ४, सूत्र ६३ ४. तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्त माहणस्स देवाणंदा माहणीए तीसे य महति महलियाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए....सव्व भासाणुगामणिए सरस्सईए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमगहाए भासाए भासइ धम्म परिकहइ। - भगवई (लाडनूं) शतक ६, उद्देशक ३३, सूत्र १४६ ५. तए णं समणे भगवं महावीरे जामालिस्स खत्तियकुमारस्स.... अद्धमागहाए भासाए भासइ धम्म परिकहइ । - भगवई (लाडनूं) शतक ६ उद्देशक ३३ सूत्र १६३ । ६. सव्वसत्तसमदरिसीहिं अदमागहाए भासाए सत्तं उवदिटठं। - आचारांग चूर्णि, जिनदासगणि पृ.२५५ | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि मात्र इतना ही नहीं, दिगम्बर परम्परा में मान्य आचार्य अर्थात् 'अर्धमागधी' रही है, यह मानना होगा । कुन्दकुन्द के ग्रन्थ बोधपाहुड, जो स्वयं शौरसेनी में निबद्ध २. इसके विपरीत शौरसेनी आगम तुल्य मान्य ग्रन्थों है, उसकी टीका में दिगम्बर आचार्य श्रुतसागर जी लिखते में किसी एक भी ग्रन्थ में एक भी सन्दर्भ ऐसा नहीं है, हैं कि भगवान् महावीर ने अर्धमागधी भाषा में अपना जिससे यह प्रतिध्वनित भी होता हो कि आगमों की मूल उपदेश दिया। प्रमाण के लिए उस टीका के अनुवाद का भाषा शौरसेनी प्राकृत थी। उनमें मात्र यह उल्लेख है कि वह अंश प्रस्तुत है - "अर्धमगध देश भाषात्मक और तीर्थंकरों की जो वाणी खिरती है, वह सर्वभाषारूप परिणत अर्ध सर्वभाषात्मक भगवान् की ध्वनि खिरती है। शंका होती है। उसका तात्पर्य मात्र इतना ही है कि उनकी अर्धमागधी भाषा देवकृत अतिशय कैसे हो सकती है, वाणी जन साधारण को आसानी से समझ में आती थी। क्योंकि भगवान की भाषा ही अर्धमागधी है? उत्तर - वह लोक-वाणी थी। उसमें मगध के निकटवर्ती क्षेत्रों की मगध देव के सानिध्य में होने से।" आचार्य प्रभाचन्द्र ने क्षेत्रीय बोलियों के शब्द रूप भी होते थे और यही कारण नन्दीश्वर भक्ति के अर्थ में लिखा है, "एक योजन तक था कि उसे मागधी न कहकर अर्धमागधी कहा गया था। भगवान् की वाणी स्वयमेव सुनाई देती है। उसके आगे ३. जो ग्रन्थ जिस क्षेत्र में रचित या सम्पादित होता संख्यात योजनों तक उस दिव्य-ध्वनि का विस्तार मगध है, उसका वहाँ की बोली से प्रभावित होना स्वाभाविक जाति के देव करते हैं। अतः अर्धमागधी भाषा देवकृत है। है। प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा - आचारांग, सूत्रकृतांग, (षट्प्राभृतम् चतुर्थ बोधपाहुड टीका पृ. १७६/२१) इसिभासियाई (ऋषिभाषित), उत्तराध्ययन, दशवैकालिक मात्र यही नहीं, वर्तमान में भी दिगम्बर-परम्परा के आदि मगध और उसके समीपवर्ती क्षेत्र में रचित हैं। महान् संत एवं आचार्य विद्यासागर जी के प्रमुख शिष्य उनमें इसी क्षेत्र के नगरों आदि की सूचनाएँ हैं। मूल मुनि श्री प्रमाणसागर जी अपनी पुस्तक जैन धर्म दर्शन पृष्ठ आगमों में एक भी ऐसी सूचना नहीं हैं कि महावीर ने ४० में लिखते हैं कि "उन भगवान् महावीर का उपदेश बिहार, बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश से आगे विहार सर्वग्राह्य 'अर्धमागधी' भाषा में हुआ।" किया हो। अतः उनकी भाषा अर्धमागधी रही होगी। जब श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएँ यह ४. पुनः आगमों की प्रथम वाचना पाटलीपुत्र में और मानकर चल रही हैं कि भगवान् का उपदेश अर्धमागधी में __ दूसरी वाचना खण्डगिरी (उड़ीसा) में हुई। ये दोनों क्षेत्र हुआ था और इसी भाषा में उनके उपदेशों के आधार पर मथुरा से पर्याप्त दूरी पर स्थित हैं। अतः कम से कम प्रथम आगमों का प्रणयन हुआ तो फिर शौरसेनी के नाम से नया और द्वितीय वाचना के समय तक अर्थात् ईस्वी पूर्व दूसरी विवाद खड़ा करके इस खाई को चौड़ा क्यों किया जा रहा शती तक उनके शौरसेनी में रूपान्तरित होने का या उससे है? यह तो आगमिक प्रमाणों की चर्चा हुई। व्यावहारिक प्रभावित होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। एवं ऐतिहासिक तथ्य भी इसी की पुष्टि करते हैं - यह सत्य है कि उसके पश्चात् जब जैन धर्म, एवं १. यदि महावीर ने अपने उपदेश अर्धमागधी में विद्या का केन्द्र पाटलीपुत्र से हटकर लगभग ईस्वी पूर्व दिये तो यह स्वाभाविक है कि गणधरों ने उसी भाषा में प्रथम शती में मथुरा बना तो उस पर शौरसेनी का प्रभाव आगमों का प्रणयन किया होगा। अतः सिद्ध है कि आना प्रारम्भ हुआ हो। यद्यपि मथुरा से प्राप्त दूसरी शती आगमों की मूल भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित ‘मागधी' तक के अभिलेखों का शौरसेनी के प्रभाव से मुक्त होना ४६ जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति का आलोक यही सिद्ध करता है कि जैनागमों पर शौरसेनी का प्रभाव दूसरी शती के पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ होगा। सम्भवतः फल्गुमित्र (दूसरी शती) के समय या उसके भी पश्चात् स्कंदिल (चतुर्थ शती) की माथुरी वाचना के समय उन पर शौरसेनी प्रभाव पड़ चुका था। यही कारण है कि यापनीय परम्परा में मान्य आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, निशीथ, कल्प, आदि जो आगम रहे हैं, वे शौरसेनी से प्रभावित रहे हैं। यदि डॉ. टाटिया ने यह कहा है कि आचारांग आदि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी प्रभावित संस्करण भी था, जो मथुरा क्षेत्र में विकसित यापनीय परम्परा को मान्य था, तो उनका कथन सत्य है, क्योंकि भगवती आराधना की टीका में आचारांग, उत्तराध्ययन, निशीथ आदि के जो संदर्भ दिये गये हैं, वे सभी शौरसेनी से प्रभावित हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि आगमों की रचना शौरसेनी में हुई थी और वे बाद में अर्धमागधी में रूपान्तरित किये गये। ज्ञातव्य है कि यह माथुरी वाचना स्कंदिल के समय महावीर निर्वाण के लगभग आठ सौ वर्ष पश्चात् हुई थी और उसमें जिन आगमों की वाचना हुई, वे सभी उसके पूर्व अस्तित्व में थे। यापनियों ने आगमों के इसी शौरसेनी प्रभावित संस्करण को मान्य किया था, किन्त दिगम्बरों के लिए तो वे आगम भी मान्य नहीं थे, क्योंकि उनके अनुसार इस माथुरी वाचना के लगभग दो सौ वर्ष पूर्व ही आगम साहित्य तो विलुप्त हो चुका था । श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि तो ई.पू. चौथी शती से दूसरी शती तक की रचनाएँ हैं, जिसे पाश्चात्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। ज्ञातव्य है कि जैन विद्या के केन्द्र के रूप में मथुरा का विकास ईस्वी पूर्व दूसरी शती से ही हुआ है और उसके " पश्चात् ही इन आगमों पर शौरसेनी प्रभाव आया होगा। आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन कब और कैसे? यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि स्कंदिल की इस माथुरीवाचना के समय ही समानान्तर रूप से एक वाचना वलभी (गुजरात) में नागार्जुन की अध्यक्षता में हुई थी और इसी काल में उन पर महाराष्ट्री प्रभाव भी आया, क्योंकि उस क्षेत्र की प्राकृत महाराष्ट्री प्राकृत थी। इसी महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित आगम आज तक श्वेताम्बर परम्परा में मान्य हैं। अतः इस तथ्य को भी स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आगमों के महाराष्ट्री प्रभावित और शौरसेनी प्रभावित संस्करण जो लगभग ईसा की चतुर्थ - पंचम शती में अस्तित्व में आये, उनका मूल आधार अर्धमागधी आगम ही थे। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि न तो स्कंदिल की माथुरी वाचना में और न नागार्जुन की वलभी वाचना में आगमों की भाषा में सोच - समझपूर्वक कोई परिवर्तन किया गया था। वास्तविकता यह है कि उस युग तक आगम कण्ठस्थ चले आ रहे थे और कोई भी कण्ठस्थ ग्रन्थ स्वाभाविक रूप से कण्ठस्थ करने वाले व्यक्ति की क्षेत्रीय बोली से अर्थात् उच्चारण शैली से अप्रभावित नहीं रह सकता है। यही कारण था कि जो उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ मथुरा में एकत्रित हुआ, उसके आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली - शौरसेनी से प्रभावित हुए और जो पश्चिमी भारत का निर्ग्रन्थ संघ वलभी में एकत्रित हुआ उसके आगम पाठ उस क्षेत्र की बोली महाराष्ट्री प्राकृत से प्रभावित हुए। पुनः यह भी स्मरण रखना चाहिए कि इन दोनों वाचनाओं में सम्पादित आगमों का मूल आधार तो अर्धमागधी आगम ही थे। यही कारण है कि शौरसेनी आगम न तो शुद्ध शौरसेनी में और न वलभी वाचना के आगम शुद्ध महाराष्ट्री में हैं। उन दोनों में अर्धमागधी के शब्द रूप तो आज भी उपलब्ध होते ही हैं। शौरसेनी आगमों में तो अर्धमागधी के साथ-साथ महाराष्टी प्राकत के शब्द रूप भी बहुलता से मिलते हैं। यही कारण है कि भाषाविद् उनकी भाषा को जैन-शौरसेनी और जैन-महाराष्ट्री | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? ४७ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि कहते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि जिन शौरसेनी आगमों गये। इसी क्रम में ईसा की चतुर्थ शती में अर्धमागधी की दुहाई दी जा रही है, उनमें से अनेक आगम ५० आगमों के शौरसेनी प्रभावित और महाराष्ट्री प्रभावित प्रतिशत से अधिक अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत से संस्करण अस्तित्व में आये। प्रभावित हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य आगमों में २. आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए प्राकृत के रूपों का जो वैविध्य है, उसके कारणों की उसका दूसरा कारण यह था कि जैन भिक्षु संघ में विभिन्न विस्तृत चर्चा मैंने अपने लेख 'जैन आगमों में हुआ भाषिक प्रदेशों के भिक्षगण सम्मिलित थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक स्वरूप परिवर्तन : एक विमर्श' सागर जैन विद्या भारती - बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी उच्चारण शैली भाग १, पृ. २३६ - २४३ में की है। प्रस्तुत प्रसंग में । में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती थी। फलतः उनके द्वारा उसका निम्नलिखित अंश दृष्टव्य है - कण्ठस्थ आगम साहित्य के भाषिक स्वरूप में भिन्नताएँ ___ “जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्धमागधी आ गयीं। तथा शौरसेनी ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों ३. जैन भिक्षु सामान्यतः भ्रमणशील होते हैं। हुआ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया जा सकता उनकी भ्रमणशीलता के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं हैं। वस्तुतः इन ग्रन्थों में हुए भाषिक परिवर्तनों का कोई पर अन्य प्रदेशों की बोलियों का प्रभाव भी पड़ता ही एक ही कारण नहीं है, अपितु अनेक कारण हैं, जिन पर था। फलतः आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन हुआ हम क्रमशः विचार करेंगे और उनमें तत्-तत् क्षेत्रीय बोलियों का मिश्रण होता १. भारत में वैदिक परम्परा में वेद वचनों को मंत्र गया। उदाहरण के रूप में जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी रूप में मानकर उनके स्वर-व्यंजन की उच्चारण योजना प्रदेशों में अधिक विहार करता है, तो उसकी भाषा में पूर्व को अपरिवर्तनीय बनाये रखने पर ही अधिक बल दिया और पश्चिम दोनों की ही बोलियों का प्रभाव आ जाता गया। उनके लिए शब्द और ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण रही है। फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम के भाषिक स्वरूप और अर्थ गौण रहा। यही कारण है कि आज भी अनेक की एकरूपता समाप्त हो गई। वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो वेदमंत्रों की उच्चारण शैली, लय आदि के प्रति तो अत्यन्त सतर्क रहते हैं, किन्तु वे ४. सामान्यतया बुद्ध के वचन बुद्ध के निर्वाण के उनके अर्थों को नहीं जानते। यही कारण है कि वेद शब्द २००-३०० वर्ष के अन्दर ही अन्दर लिखित रूप में आ रूप में यथावत बने रहे। इसके विपरीत जैन परम्परा में गए। अतः उनके भाषिक स्वरूप में उनके रचनाकाल के यह माना गया कि तीर्थंकर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं। बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया, तथापि उनकी उनके वचनों को शब्द रूप तो गणधर आदि के द्वारा उच्चारण शैली विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही है। आज दिया जाता है। अतः जैनाचार्यों के लिए अर्थ या कथन । भी लंका, बर्मा, थाईलैण्ड आदि देशों के भिक्षुओं का का तात्पर्य ही प्रमुख था। उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल त्रिपिटक का उच्चारण भिन्न-भिन्न होता है, फिर भी नहीं दिया। शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाए, लेकिन उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता है। इसके अर्थों में परिवर्तन नहीं होना चाहिए। यही जैन आचार्यों विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक का प्रमुख लक्ष्य रहा। शब्द रूपों की उनकी इस उपेक्षा के सुदीर्घकाल तक लिखित रूप में नहीं आ सका। वह गुरुफलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते शिष्य परम्परा से मौखिक ही चलता रहा। फलतः ४८ जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति का आलोक कि अर्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में संकलित और सम्पादित हुए तो उनका भाषिक स्वरूप अर्धमागधी की अपेक्षा शौरसेनी के निकट हो गया और जब वलभी में लिखे गए तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया। यह अलग बात है कि ऐसा परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उनमें अर्धमागधी के तत्व भी बने रहे। अतः अर्धमागधी और शौरसेनी आगमों में भाषिक स्वरूप का जो वैविध्य है, वह एक वास्तविकता है, जिसे हमें स्वीकार करना होगा। देशकालगत उच्चारण-भेद से उनको लिपिबद्ध करते समय उनके भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया। मात्र यही नहीं, लिखित प्रतिलिपियों के पाठ भी प्रतिलिपिकारों की असावधानी या क्षेत्रीय बोली से प्रभावित हुए। श्वेताम्बर आगमों की प्रतिलिपियाँ मख्यतः गजरात और राजस्थान में हुई, अतः उन पर महाराष्ट्री का प्रभाव आ गया। ५. भारत में कागज का प्रचलन न होने से भोजपत्रों या ताड़पत्रों पर ग्रंथों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रखना जैन मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल था। लगभग ईस्वी सन् की ५वीं शती तक इस कार्य को पाप-प्रवृत्ति माना जाता था तथा इसके लिए दण्ड की व्यवस्था भी थी। फलतः महावीर के पश्चात् लगभग १००० वर्ष तक जैन साहित्य श्रुत-परम्परा पर ही आधारित रहा । श्रुत-परम्परा पर आधारित होने से आगमों के भाषिक स्वरूप में वैविध्य आ गया। ६. आगमिक एवं आगम-तुल्य साहित्य में आज भाषिक रूपों का जो वैविध्य देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है। प्रतिलिपिकार जिस क्षेत्र का होता था, उस पर उस क्षेत्र की बोली/भाषा का प्रभाव रहता था और असावधानी से अपनी प्रादेशिक बोली के शब्द रूपों को लिख देता था। उदाहरण के रूप में चाहे मूलपाठ में “गच्छति" लिखा हो, लेकिन यदि उस क्षेत्र में प्रचलन में “गच्छइ" का व्यवहार है, तो प्रतिलिपिकार “गच्छइ” रूप ही लिख देगा। ७. जैन आगम एवं आगम-तुल्य ग्रन्थों में आये भाषिक परिवर्तनों का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में सम्पादित होते रहे हैं। सम्पादकों ने उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर रखने का प्रयत्न नहीं किया, अपितु उन्हें सम्पादित करते समय अपने युग और क्षेत्र की प्रचलित भाषा और व्याकरण के आधार पर उनमें परिवर्तन भी कर दिया। यही कारण है क्या शौरसेनी आगमों के भाषिक स्वरूप में एक रूपता है? किन्तु डॉ. सुदीप जैन का दावा कि “आज भी शौरसेनी आगम साहित्य में भाषिक तत्व की एकरूपता है, जबकि अर्धमागधी आगम साहित्य में भाषा के विविध रूप पाये जाते हैं। उदाहरणस्वरूप शौरसेनी में सर्वत्र “ण” का प्रयोग मिलता है, कहीं भी 'न' का प्रयोग नहीं है। जबकि, अर्धमागधी में नकार के साथ-साथ णकार का प्रयोग भी विकल्पतः मिलता है। यदि शौरसेनी युग में नकार का प्रयोग आगम भाषा में प्रचलित होता तो दिगम्बर साहित्य में कहीं तो विकल्प से प्राप्त होता।"; प्राकृत विया जुलाई-सितम्बर '६६ पृ.७ यहाँ डॉ. सुदीप जैन ने दो बातें उठाई हैं, प्रथम, शौरसेनी आगम साहित्य की भाषिक एकरूपता की ओर दूसरी 'ण' कार और 'न' कार की। क्या सुदीप जी आपने शौरसेनी आगम साहित्य के उपलब्ध संस्करणों का भाषाशास्त्र की दृष्टि से कोई प्रामाणिक अध्ययन किया है? यदि आपने किया होता तो आप ऐसा खोखला दावा प्रस्तुत नहीं करते? आप केवल णकार का ही उदाहरण क्यों देते हैं- वह तो महाराष्ट्र और शौरसेनी दोनों में सामान्य है। दूसरे शब्द रूपों की चर्चा क्यों नहीं करते? नीचे मैं दिगम्बर शौरसेनी आगम-तुल्य ग्रन्थों से ही कुछ | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? ४६ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि उदाहरण दे रहा हूँ, जिनसे उनके भाषिक तत्व की एकरूपता (३२), वुच्चइ (४५), कुव्वइ (८१, २८६, ३१६, ३२१, का दावा कितना खोखला है, यह सिद्ध हो जाता है। मात्र ३२५, ३४०) परिणमइ (७६,७६,८०), (ज्ञातव्य है कि यही नहीं, इससे यह भी सिद्ध होता है कि शौरसेनी समयसार के इसी संस्करण की गाथा क्रमांक ७७,७८,७६ आगम-तुल्य ग्रन्थ न केवल अर्धमागधी से प्रभावित हैं, में परिणमदि रूप भी मिलता है) इसी प्रकार के अन्य अपितु उससे परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत से भी प्रभावित महाराष्ट्री प्राकृत रूप, जैसे वेयई (८४), कुणई (७१, ६६, २८६, २६३, ३२२, ३२६), होइ (६४, ३०६, १. आत्मा के लिये अर्धमागधी में आता, अत्ता, १६७, ३४६, ३५८), करेई (६४,२३७, २३८ ३२८, अप्पा आदि शब्द रूपों के प्रयोग उपलब्ध हैं, जबकि __ ३४८), हवई (१४१, ३२६, ३२६), जाणई (१८५, शौरसेनी में मध्यवर्ती 'त' का “द” होने के कारण "आदा" ३१६, ३१६, ३२०, ३६१), बहइ (१८६), सेवइ (१६७) रूप बनाता है। समयसार में “आदा" के साथ-साथ “अप्पा" मरइ (२५७, २६०) ३२८, ३४८), हवई (१४१, ३२६, शब्द रूप जो कि अर्धमागधी का है अनेकबार प्रयोग में ३२६), जाणई (१८५, ३१६, ३१६, ३२०, ३६१), आया है। केवल समयसार में ही नहीं, अपितु नियमसार बहइ (१८६) सेवइ (१६७), मरइ (२५७,२६०), (जबकि गाथा २५८ में मरदि रूप भी है इसी प्रकार, सवइ (२६२, (१२०,१२१,१८३) आदि में भी “अप्पा" शब्द का प्रयोग २६१), घिप्पइ (२६६), उप्पज्जइ (३०८), विणस्सइ (३१२, ३४५), दीसइ (३२३) आदि भी मिलते हैं। ये २. 'श्रुत' का शौरसेनी रूप “सुद" बनता है। शौरसेनी तो कुछ ही उदाहरण हैं- ऐसे अनेकों महाराष्ट्री प्राकृत के आगम-तुल्य ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर “सुद" "सुदकेवली" क्रिया रूप समयसार में उपलब्ध हैं। न केवल समयसार शब्द के प्रयोग भी हुए हैं, जबकि समयसार (वर्णी ग्रन्थमाला) अपितु नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि की गाथा ६ एवं १० में स्पष्ट रूप से “सुयकेवली” “सुयणाण" भी यही स्थिति है। शब्दरूपों का भी प्रयोग मिलता है। ये दोनों महाराष्ट्री शब्द रूप हैं और परवर्ती भी हैं। अर्धमागधी में तो सदैव बारहवीं शती में रचित वसुनन्दीकृत श्रावकाचार 'सुत' शब्द का प्रयोग होता है। (भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के इन ग्रन्थों से भी बदतर है उसकी प्रारम्भ की सौ गाथाओं ३. शौरसेनी में “द” की प्रधानता है, साथ ही, उसमें में 40% क्रियारूप महाराष्ट्री प्राकृत के हैं। “लोप" की प्रवृत्ति अत्यल्प है। अतः उसके क्रिया रूप "हवदि, होदि, कुणदि, गिण्हदि, कुत्तदि, परिणमदि, भण्णदि, इसके फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी पस्सदि आदि बनते हैं। इन क्रिया रूपों का प्रयोग उन आगमों के भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की ग्रन्थों में हुआ भी है, किन्तु उन्हीं ग्रन्थों के क्रिया रूपों पर अपेक्षा भी न केवल अधिक वैविध्य है, अपितु उस महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक प्रभाव है, इसे निम्न महाराष्ट्री प्राकृत का भी व्यापक प्रभाव है, जिसे सुदीप जी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे हैं। यदि ये ग्रन्थ, प्राचीन उदाहरणों से जाना जा सकता है होते, तो इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव समयसार, वर्णी ग्रन्थमाला (वाराणसी) कहाँ से आता? प्रो. ए.एम. उपाध्ये ने प्रवचनसार की जाणइ (१०), हवई (११३१५, ३८६, ३८४), मुणइ भूमिका में स्पष्टतः यह स्वीकार किया है कि उसकी भाषा | ५० ५० जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति का आलोक पर अर्धमागधी का प्रभाव है। प्रो. खडबडी ने तो ०४. मथुरा, प्राकृत काल निर्देश नहीं दिया है, किन्तु षट्खण्डागम की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं माना जे.एफ. फलीट के अनुसार लगभग १४-१३ ई. पूर्व प्रथम शती का होना चाहिए पृ. १५ क्रमांक ३ 'न' कार और 'ण' कार में कौन प्राचीन? मो 'अरहतो वर्धमानस्य' अब हम नकार और णकार के प्रश्न पर आते हैं। ०६. मथुरा प्राकृत सम्भवतः १४-१३ ई.पू. प्रथमशती भाई सुदीप जी, आपका यह कथन सत्य है कि अर्धमागधी पृ.१५ लेख क्रमांक १०, ‘मा अरहतपूजा' में नकार और णकार दोनों पाये जाते हैं। किन्तु, दिगम्बर ०७. मथुरा प्राकृत पृ.१७ क्रमांक १४ 'मा अरहंतानं शौरसेनी आगम-तुल्य गन्थों मे सर्वत्र णकार का पाया श्रमणश्रविका जाना यही सिद्ध करता हैं कि जिस शौरसेनी को आप अरिष्टनेमी के काल से प्रचलित प्राचीनतम प्राकृत कहना ०८. मथुरा प्राकृत पृ.१७ क्रमांक १५ 'नमो अरहंतानं' चाहते हैं, उस णकार प्रधान शौरसेनी का जन्म तो ईसा ०६. मथुरा प्राकृत पृ.१८ क्रमांक १६ 'नमो अरहतो की तीसरी शताब्दी तक हुआ भी नहीं था। “ण” की महाविरस' अपेक्षा 'न' का प्रयोग प्राचीन है। ईस्वी पूर्व द्वितीय शती १०. मथरा, प्राकत दविष्क संवत ३६-हस्तिस्तम्भ पृ.३४, के अशोक अभिलेख एवं ईस्वी पूर्व द्वितीय शती के क्रमांक ४३ 'अयर्येन रुद्रदासेन अरहंतनं पुजाये। खारवेल के शिलालेख से लेकर मथुरा के शिलालेख (ई.पू. दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती तक) इन लगभग ८० । ११. मथुरा प्राकृत भग्न वर्ष ६३ पृ.४६ क्रमांक ६७ 'नमो अर्हतो महाविरस्य' जैन शिलालेखों में एक भी ‘णकार' का प्रयोग नहीं है। इनमें शौरसेनी प्राकृत के रूपों यथा “णमो” “अरिहंताणं" १२. मथुरा, प्राकृत वासुदेव सं. ६८ पृ.४७ क्रमांक ६० और “णमो वड्ढमाणं" का सर्वथा अभाव है। यहाँ हम 'नमो अरहतो महावीरस्य' केवल उन्हीं प्राचीन शिलालेखों को उद्धृत कर रहे हैं, १३. मथुरा, प्राकृत पृ.४८ क्रमांक ७१ 'नमो अरहंतानं जिनमें इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। ज्ञातव्य है कि ये सिहकस' सभी अभिलेखीय साक्ष्य जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ से प्रस्तुत हैं, जो दिगम्बर जैन समाज द्वारा ही प्रकाशित हैं। १४. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ.४८ क्रमांक ७२ 'नमो अरहंतान' ०१. हाथीगुफा बिहार का शिलालेख - प्राकृत, जैन सम्राट् १५. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ.४८ क्रमांक ७३ 'नमो अरहंतानं' खारवेल, मौर्यकाल १६५वाँ वर्ष, पृ. ४ लेख क्रमांक १६. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ.४८ क्रमांक ७५ 'अरहंतानं २ - 'नमो अरहंतानं, नमो सवसिधानं' वधमानस्य' ०२. वैकुण्ठ स्वर्गपुरी गुफा, उदयगिरी, बिहार, - प्राकृत, मौर्यकाल १६५ वाँ वर्ष लगभग ई.पू. दूसरी शती १७. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ.५१, क्रमांक ८० 'नमो अरहंतान...द्वन' पृ.११ ले.क. 'अरहन्तपसादन' ०३. मथुरा, प्राकृत, महाक्षत्रप शोडाशके २१ वर्ष का प्र. शूरसेन प्रदेश, जहाँ से शौरसेनी प्राकृत का जन्म १२ क्रमांक ५, नम अहरतो वधमानस' हुआ, वहाँ के शिलालेखों में दूसरी-तीसरी शती तक मध्यवर्ती . | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि णकार एवं 'त', द होने के प्रयोग का अभाव यही सिद्ध करता है कि दिगम्बर आगमों एवं नाटकों की शौरसेनी का जन्म ईसा की तीसरी शती के पूर्व का नहीं है, जबकि नकार प्रधान अर्धमागधी का प्रयोग तो अशोक के अभिलेखों से अर्थात् ई.पू. तीसरी शती से सिद्ध होता है। इससे यही फलित होता हैं कि अर्धमागधी आगम प्राचीन थे। आगमों का शब्द रूपान्तरण अर्धमागधी से शौरसेनी में हुआ है, न कि शौरसेनी से अर्धमागधी में। दिगम्बर मान्य आगमों की वह शौरसेनी जिसकी प्राचीनता का बढ़-चढ़ कर दावा किया जाता है, वह अर्धमागधी और महाराष्ट्री दोनों से ही प्रभावित है और न केवल भाषायी स्वरूप के आधार पर, वरन् अपनी विषय-वस्तु के आधार पर भी ईसा की चौथी-पाँचवीं शती के पूर्व की नहीं है। क्योंकि, कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में और मूलाचार षट्खण्डागम और भगवती आराधना में गुणस्थान का सिद्धान्त मिलता है, जो लगभग पाँचवीं-छठी शती में अस्तित्व में आया है। ____ यदि शौरसेनी प्राचीनतम प्राकृत है, तो फिर सम्पूर्ण देश में ईसा की तीसरी चौथी शती तक का एक भी अभिलेख शौरसेनी प्राकृत में क्यों नहीं मिलता? अशोक के अभिलेख, खारवेल के अभिलेख, बलडी का अभिलेख और मथुरा के शताधिक अभिलेख - कोई भी तो शौरसेनी प्राकृत में नहीं हैं। इन सभी अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी ही है। अतः उसे अर्धमागधी तो कहा जा सकता है, किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है। अतः प्राकृतों में अर्धमागधी ही प्राचीन है, क्योंकि मथुरा के प्राचीन अभिलेखों में भी नमो अरहंतानं, नमो वधमानस आदि अर्धमागधी शब्द रूप मिलते हैं। श्वेताम्बर आगमों और अभिलेखों में आये 'अरहंतानं' पाठ का तो प्राकत विया में खोटे सिक्के की तरह बताया गया हैं। इसका अर्थ है कि यह पाठ शौरेसनी का नहीं है (प्राकृत विद्या अक्तूबर - दिसम्बर ६४ पृ.१०-११) अतः शौरसेनी उसके बाद ही विकसित हुई है।) शौरसेनी आगम और उनकी प्राचीनता जब हम आगम की बात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि आचांराग आदि द्वादशांगी जिन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय परम्परा आगम कहकर उल्लेखित करती है, वे सभी मूलतः अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर परम्परा में नन्दीसूत्र में उल्लेखित आगम हों, चाहे मूलाचार, भगवती आराधना और उनकी टीकाओं में या तत्त्वार्थ और उसकी दिगम्बर टीकाओं में उल्लेखित आगम हो, अथवा अंगपण्णति और धवला के अंग और अंग-बाह्य के रूप में उल्लेखित आगम हों, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था। हाँ, इतना अवश्य है कि इनमें से कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित संस्करण माथुरी वाचना लगभग चतुर्थ शती के समय अस्तित्व में अवश्य आये थे, किन्तु इन्हें शौरसेनी आगम कहना उचित नहीं होगा, वस्तुतः ये आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि श्वेताम्बर परम्परा में मान्य आगमों के ही शौरसेनी प्रभावित संस्करण थे, जो यापनीय परम्परा में मान्य थे और जिनका भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ भेदों को छोड़कर श्वेताम्बर मान्य आगमों से समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने "जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय" नामक ग्रन्थ के तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में की है। पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं। वस्तुतः आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से जानते है, उनमें मुख्यतः निम्नलिखित ग्रन्थ आते हैं: अ. यापनीय आगम १. कसायपाहुड लगभग ईसा की चौथी-पाँचवी शती, गुणधर २. षटखण्डागम, ईसा की पाँचवीं शती का उत्तरार्ध, __पुष्पदंत और भूतबली जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति का आलोक है ३. भगवती आराधना, ईसा की छठी शती, - शिवार्य अनुपस्थित है, जबकि षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती ४. मूलाचार, ईसा की छठी शती, - वट्टकेर आराधना आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में इनकी चर्चा पायी जाती है अतः ये सभी ग्रन्थ उनसे ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थ मूलतः यापनीय परम्परा परवर्ती हैं। इसी प्रकार उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र मूल के हैं और इनमें अनेकों गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य और उसके स्वोपज्ञ भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा आगमों, विशेष रूप से नियुक्तियों और प्रकीर्णकों अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती टीकाएँ गुणस्थान के समरूप हैं। की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत करती है। उमास्वाति का काल व. कुन्दकुन्द, ईसा की छठी शती के लगभग के ग्रन्थ- तीसरी-चौथी शती के लगभग है। अतः यह निश्चित है ५. समयसार कि गुणस्थान का सिद्धान्त पाँचवी शती में अस्तित्व में नियमसार - आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा आया। अतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ, जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा है, ईसा की पाँचवी ७. प्रवचनसार रचित (६ठी शती) शती के पूर्व का नहीं हैं। प्राचीन शौरसेनी आगम-तुल्य ८. पञ्चास्तिकायसार ग्रन्थों में मात्र कसायपाहड ही ऐसा है, जो स्पष्टतः गुणस्थानों ६. अष्टपाहुड (इसका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना सन्दिग्ध का उल्लेख नहीं करता हैं, किन्तु उसमें भी प्रकारान्तर से है, क्योंकि इसकी भाषा में अपभ्रंश के शब्द रूप भी १२ गुणस्थानों की चर्चा उपलब्ध है। अतः वह भी आध्यात्मिक विकास की उन दस अवस्थाओं, जिनका स. अन्य ग्रन्थ, ईसा की छठी शती के पश्चात् - उल्लेख आचारांग नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में हैं, से १०. तिलोय पण्णति - यतिवृषभ परवर्ती और गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के संक्रमणकाल की रचना है। अतः उसका काल भी चौथी से पाँचवी ११. लोकविभाग शती के बीच सिद्ध होता है। १२. जंबुद्वीप पण्णति शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला १३. अंगपण्णति ___शौरसेनी की प्राचीनता का गुणगान इस आधार पर १४.क्षपणसार भी किया जाता है कि यह नारायण कृष्ण और तीर्थंकर १५. गोम्मटसार (दसवीं शती) अरिष्टनेमि की मातृभाषा रही है, क्योंकि इन दोनों महापुरुषों किन्तु इनमें से कसायपाहुड को छोड़कर कोई भी का जन्म शूरसेन में हुआ था और ये शौरसेनी प्राकृत में ही ग्रन्थ ऐसा नहीं हैं, जो पाँचवीं शती के पूर्व का हो। ये ___ अपना वाक्-व्यवहार करते थे। डॉ. सुदीप जी के शब्दों सभी ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त और सप्तभंगी की चर्चा में “इन दोनों महापुरुषों के प्रभावक व्यक्तित्व के महाप्रभाव अवश्य करते हैं और गुणस्थान की चर्चा जैन दर्शन में से शूरसेन जनपद में जन्मी शौरसेनी प्राकृत-भाषा को पांचवीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनपस्थित है। श्वेताम्बर सम्पूर्ण आर्यावर्त में प्रसारित होने का सुअवसर मिला आगमों में समवायांग और आवश्यक निर्यक्ति की दो था।” (प्राकृत विद्या, जुलाई - सितम्बर ६६, पृ. ६) प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णतः यदि हम एक बार उनके इस कथन को मान भी ले, | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि तो प्रश्न उठता है कि अरिष्टनेमि के पूर्व नमि मिथिला में हुआ। इस सम्बन्ध में मेरा उनसे निवेदन है कि मागधी के जन्मे थे, वासुपूज्य चम्पा में जन्मे थे, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ सम्बन्ध में 'प्रकृतिः शौरसेनी' - (प्राकृत प्रकाश १२/२) और श्रेयांस काशी जनपद में जन्मे थे, यही नहीं प्रथम इस कथन की वे जो व्याख्या कर रहे हैं वह भ्रान्त हैं और तीर्थंकर ऋषभदेव और मर्यादा पुरुषोत्तम राम आयोध्या वे स्वयं भी शौरसेनी के सम्बन्ध में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' में जन्मे थे। यह सारा क्षेत्र मगध का निकटवर्ती क्षेत्र ही (प्राकृत प्रकाश १२/२) इस सूत्र की व्याख्या में 'प्रकृतिः' तो है, अतः इनकी मातभाषा तो अर्धमागधी रही होगी। का जन्मदात्री - यह अर्थ अस्वीकार कर चुके हैं। इसकी भाई सुदीप जी के अनुसार यदि शौरसेनी अरिष्टनेमी विस्तृत समीक्षा हमने अग्रिम पृष्ठों में की है। इसके प्रत्युत्तर जितनी प्राचीन है, तो फिर अर्धमागधी तो ऋषभ जितनी में मेरा दूसरा तर्क यह है कि यदि शौरसेनी प्राकृत ग्रन्थों प्राचीन सिद्ध होती है अतः शौरसेनी से अर्धमागधी प्राचीन के आधार पर ही मागधी के प्राकृत आगमों की रचना हुई, तो उनमें किसी भी शौरसेनी प्राकृत के ग्रन्थ का ही है। उल्लेख क्यों नहीं हैं? श्वेताम्बर आगमों में वे एक भी यदि शौरसेनी प्राचीन होती तो सभी प्राचीन अभिलेख संदर्भ दिखा दें, जिनमें भगवती आराधना, मूलाचार, और प्राचीन आगमिक ग्रन्थ शौरसेनी में मिलने चाहिए - षटखण्डागम. तिलोयपण्णत्ति. प्रवचनसार. समयसार किन्तु ईसा की चौथी - पाँचवीं शती से पूर्व का कोई भी नियमसार आदि का उल्लेख हुआ हो। टीकाओं में भी ग्रन्थ और अभिलेख शौरसेनी में उपलब्ध क्यों नहीं होता? मलयगिरिजी ने मात्र ‘समयपाहुड' का उल्लेख किया है इसके विपरीत मूलाचार, भगवती आराधना और षट्खण्डागम ___नाटकों में शौरसेनी प्राकृत की उपलब्धता के आधार की टीकाओं में और तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि, पर उसकी प्राचीनता का गुणगान किया जाता है, मैं राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक, आदि सभी दिगम्बर टीकाओं विनम्रतापूर्वक पूछना चाहूँगा कि क्या इन उपलब्ध नाटकों में इन आगमों और नियुक्तियों के उल्लेख हैं, भगवती में कोई भी नाटक ईसा की चौथी-पाँचवी शती से पूर्व का आराधना की टीका में तो आचारांग, उत्तराध्ययन कल्प है? फिर उन्हें शौरसेनी की प्राचीनता का आधार कैसे तथा निशीथ से अनेक अवतरण भी दिये हैं। मूलाचार में माना जा सकता है। मात्र नाटक ही नहीं, वे शौरसेनी न केवल अर्धमागधी आगमों का उल्लेख है, अपितु उनकी प्राकृत का एक भी ऐसा ग्रन्थ या अभिलेख दिखा दें, जो । सैकड़ों गाथाएँ भी हैं। मूलाचार में आवश्यकनियुक्ति, अर्धमागधी आगमों और मागधी प्रधान अशोक, खारवेल, आतरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक, उत्तराध्ययन, आदि के अभिलेखों से प्राचीन हो । अर्धमागधी के अतिरिक्त दशवैकालिक आदि की अनेक गाथाएँ अपने शौरसेनी जिस महाराष्ट्री प्राकृत को वे शौरसेनी से परवर्ती बता रहे शब्द रूपों में यथावत् पायी जाती हैं। हैं, उसमें हाल की गाथा सप्तशती लगभग प्रथम शती में दिगम्बर परम्परा में जो प्रतिकमण सूत्र उपलब्ध हैं, रचित है और शौरसेनी के किसी भी ग्रन्थ से प्राचीन है। उसमें ज्ञातासूत्र के उन्हीं १६ अध्ययनों के नाम मिलते हैं, ___मैं डॉ. सुदीप के निम्न कथन की ओर पाठकों का जो वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध ज्ञाताधर्मकथा ध्यान पुनः दिलाना चाहूँगा, वे प्राकृत विद्या जुलाई-सितम्बर में उपलब्ध हैं। तार्किक दृष्टि से यह स्पष्ट है कि जो ग्रन्थ '६६ में लिखते हैं कि दिगंबरों के ग्रंथ उस शौरसेनी जिन-जिन ग्रन्थों का उल्लेख करता है, वह उनसे परवर्ती प्राकृत में हैं, जिससे ‘मागधी' आदि प्राकृतों का जन्म ही होता है, पूर्ववर्ती कदापि नहीं। शौरसेनी आगम या ५४ जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति का आलोक आगम-तुल्य ग्रन्थों में अर्धमागधी आगमों के नाम मिलते हैं, तो फिर शौरसेनी और उसका रचित साहित्य अर्धमागधी आगमों से प्राचीन कैसे हो सकता है? आदरणीय टाटिया जी के माध्यम से यह बात भी उठायी गयी कि मूलतः आगम शौरसेनी में रचित थे और कालान्तर में उनका अर्धमागधीकरण (महाराष्ट्री करण) किया गया। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि जैनधर्म का उद्भव मगध में हुआ और वहीं से वह दक्षिणी एवं उत्तरपश्चिमी भारत में फैला। अतः आवश्यकता हुई अर्धमागधी रूपान्तर की। सत्य तो यह है कि अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी या महाराष्ट्री में रूपान्तरित हुए न कि शौरसेनी आगम अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए। अतः ऐतिहासिक तथ्यों की अवहेलना कर मात्र कुतर्क करना कहाँ तक उचित है? बुद्ध वचनों की मूल भाषा मागधी थी, न कि शौरसेनी शौरसेनी को मूल भाषा और मागधी से प्राचीन सिद्ध करने हेतु आदरणीय प्रो. नथमल जी टाटिया के नाम से यह भी प्रचारित किया जा रहा है कि “शौरसेनी पालि भाषा की जननी है - यह मेरा स्पष्ट चिन्तन है। पहिले बौद्धों के ग्रन्थ शौरसेनी में थे। उनको जला दिया गया और पालि में लिखा गया।" - प्राकृत विद्या, जुलाई - सितम्बर ६६ पृ. १०. ___टाटिया जी जैसा बौद्ध विद्या का प्रकाण्ड विद्वान् ऐसी कपोल कल्पित बात कैसे कह सकता है? यह विचारणीय है। क्या ऐसा कोई भी अभिलेखीय या साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध है? जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि मूल बुद्ध वचन शौरसेनी में थे? यदि हो तो आदरणीय टाटिया जी या भाई सुदीप जी उसे प्रस्तुत करें, अन्यथा ऐसी आधारहीन बातें करना विद्वानों के लिए शोभनीय नहीं है। यह बात तो बौद्ध विद्वान् भी स्वीकार करते हैं कि मूल बुद्ध वचन 'मागधी' में थे और कालान्तर में उनकी भाषा को संस्कारित करके पालि में लिखा गया। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जिस प्रकार मागधी और अर्धमागधी में किंचित् अन्तर है, उसी प्रकार 'मागधी' और 'पालि' में भी किंचित् अन्तर है। वस्तुतः पालि तो भगवान् बुद्ध की मूलभाषा 'मागधी' का एक संस्कारित रूप ही है, यही कारण है कि कुछ विद्वान् पालि को मागधी का ही एक प्रकार मानते हैं। दोनों में बहुत अधिक अन्तर नहीं है। पालि, संस्कृत और मागधी की मध्यवर्ती भाषा है या मागधी का ही साहित्यिक रूप है। यह तो प्रमाण सिद्ध है कि भगवान् बुद्ध ने मागधी में ही अपने उपदेश दिये थे, क्योंकि उनकी जन्म-स्थली और कार्य-स्थली दोनों मगध और उसका निकटवर्ती प्रदेश ही था। बौद्ध विद्वानों का स्पष्ट मन्तव्य है कि मागधी ही मूल भाषा है। इस सम्बन्ध में बुद्धघोष का निम्नलिखित कथन सबसे बड़ा प्रमाण है सा मागधी मूल भासा बरायाय आदिकप्पिका। बह्मणो च अस्सुवालापा संबुद्धा चापि भासरे। अर्थात् मागधी ही मूलभाषा है, जो सृष्टि के प्रारम्भ में उत्पन्न हुई और न केवल ब्रह्मा (देवता) अपितु बालक और बुद्ध भी इसी में बोलते हैं (See – The preface to the childer's Pali Dictionary) इससे यही फलित होता है कि मूल बुद्ध वचन मागधी में थे। पालि उसी मागधी का संस्कारित साहित्यिक रूप है, जिसमें कालान्तर में बुद्ध वचन लिखे गये । वस्तुतः पालि के रूप में मागधी का एक ऐसा संस्करण तैयार किया गया, जिसे संस्कृत के विद्वान् और भिन्न - भिन्न प्रान्तों के लोग भी आसानी से समझ सकें। अतः बुद्ध वचन मूलतः मागधी में थे, न कि शौरसेनी में। बौद्ध त्रिपिटक की पालि और जैन आगमों की अर्धमागधी में कितना साम्य है, यह तो सुत्तनिपात और इसिभासियाइ के | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? ५५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है । प्राचीन पालि ग्रन्थों की एवं प्राचीन अर्धमागधी आगमों की भाषा में अधिक दूरी नहीं है । जिस समय अर्धमागधी और पालि में ग्रन्थ रचना हो रही थी, उस समय तक शौरसेनी एक बोली थी, न कि एक साहित्यिक भाषा । साहित्यिक भाषा के रूप में उसका जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद ही हुआ है । संस्कृत के पश्चात् सर्वप्रथम साहित्यिक भाषा के रूप में यदि कोई भाषाएं विकसित हुई है तो वे अर्धमागधी और पालि ही हैं, न कि शौरसेनी । शौरसेनी का कोई भी ग्रन्थ या नाटकों के अंश ईसा की तीसरी - चौथी शती से पूर्व का नहीं हैं जबकि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम साहित्य के अनेक ग्रन्थ ई.पू. तीसरी - चौथी शती में निर्मित हो चुके थे । 'प्रकृतिः शौरसेनी' का सम्यक् अर्थः जो विद्वान् मागधी या अर्धमागधी को शौरसेनी से परवर्ती और उसीसे विकसित मानते हैं, वे अपने कथन का आधार वररुचि (लगभग ७वीं शती) के प्राकृत प्रकाश और हेमचन्द्र (लगभग १२वीं शताब्दी) के प्राकृत व्याकरण के निम्नलिखित सूत्रों को बताते हैं - अ. 9. प्रकृतिः शौरसेनी । । १० / २ । । अस्याः पैशाच्याः प्रकृतिः शौरसेनी । स्थितायां शौरसेन्यां पैशाची - लक्षणं प्रवर्ततितव्यम् । २. प्रकृतिः शौरसेनी ।।११/२।। २. अस्याः मागध्याः प्रकृतिः शौरसेनीति वेदितव्यम् । वररुचि कृत 'प्राकृत प्रकाश' ब. १. शेष शौरसेनीवत् । । ८ / ४ / ३०२ ।। मागध्यां यदुक्तं, ततोअन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम् । ५६ - शेष शौरसेनीवत् ।। ८/४/३२३ ।। पैशाच्यां यदुक्तं, ततोअन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद् भवति । ३. शेष शौरसेनीवत् ।। ८/४/४४६ ।। अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्य भवति । अपभ्रंशभाषायां प्रायः शौरसेनी भाषातुल्य कार्य जायते; शौरसेनी-भाषायाः ये नियमाः सन्ति, तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशभाषायामपि जायते - हेमचन्द्र कृत 'प्राकृत व्याकरण' अतः इस प्रसंग में यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम इन सूत्रों में 'प्रकृति' शब्द का वास्तविक तात्पर्य क्या है, इसे समझें। यदि हम यहाँ प्रकृति का अर्थ उद्भव का कारण मानते हैं, तो निश्चित ही इन सूत्रों से यह फलित होता है कि मागधी या पैशाची का उद्भव शौरसेनी से हुआ, किन्तु शौरसेनी को एकमात्र प्राचीन भाषा मानने वाले तथा मागधी और पैशाची को उससे उद्भूत मानने वाले ये विद्वान् वररुचि के उस सूत्र को भी उद्धृत क्यों नहीं करते, जिसमें शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत बताई गयी है, यथा “ शौरसेनी - १२ / १ टीका - शूरसेनानां भाषा शौरसेनी साच लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्फुटीकियते इति वेदितव्यम् । अधिकारसूत्रमेतदा परिच्छेद समाप्तेः १२/१ प्रकृतिः संस्कृतम्१२/२ टीका - शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृतिः संस्कृतम् ।। प्राकृत प्रकाश /१२/२/" अतः उक्त सूत्र के आधार पर हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शौरसेनी प्राकृत संस्कृत से उत्पन्न हुई । इस प्रकार प्रकृति का अर्थ उद्गम स्थल करने पर उसी प्राकृत प्रकाश के आधार पर यह मानना होगा कि मूलभाषा संस्कृत थी और उसी से शौरसेनी उत्पन्न हुई। क्या शौरसेनी के पक्षधर इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार हैं? भाई सुदीप जी, जो शौरसेनी के पक्षधर हैं और 'प्रकृतिः शौरसेनी' के आधार पर मागधी को शौरसेनी से उत्पन्न बताते हैं, वे स्वयं भी 'प्रकृतिः संस्कृतम् प्राकृत प्रकाश १२ / २' के आधार पर यह मानने को तैयार नहीं हैं कि प्रकृति का अर्थ उससे उत्पन्न हुई ऐसा हैं वे स्वयं लिखते हैं- “ आज जितने भी प्राकृत व्याकरण शास्त्र उपलब्ध हैं । वे सभी संस्कृत भाषा में हैं - जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति का आलोक और संस्कृत व्याकरण के मॉडल पर निर्मित हैं। अतएव अर्थात् जो संसार के प्राणियों का व्याकरण आदि उनमें 'प्रकृतिः संस्कृतम्' जैसे प्रयोग देखकर कतिपयजन संस्कार से रहित सहज वचन व्यापार है, उससे निःसृत ऐसा भ्रम करने लगते हैं कि प्राकृतभाषा संस्कृत भाषा से भाषा प्राकृत है, जो बालक, महिला आदि के लिए भी उत्पन्न हुई - ऐसा अर्थ कदापि नहीं हैं। (प्राकृत-विद्या, सुबोध है और पूर्व में निर्मित होने से (प्राक्+कृत) सभी जुलाई-सितम्बर ६६, पृ.१४) भाई सुदीप जी जब शौरसेनी भाषाओं की रचना का आधार है, वह तो मेघ से निर्मुक्त की बारी आती है, तब आप प्रकृति का अर्थ आधार जल की तरह सहज है। उसी का देश-प्रदेश के आधार पर मॉडल करें और जब मागधी का प्रश्न आये तब आप किया गया संस्कारित रूप संस्कृत और उसके विभिन्न भेद 'प्रकृतिः शौरसेनी' का अर्थ मागधी और शौरसेनी से अर्थात विभिन्न साहित्यिक प्राकतें हैं। सत्य यह है कि बोली उत्पन्न हुई ऐसा करें - यह दोहरा मापदण्ड क्यों? क्या के रूप में तो प्राकत ही प्राचीन हैं और संस्कत उनका केवल शौरसेनी को प्राचीन और मागधी को अर्वाचीन संस्कारित रूप हैं- वस्तुतः संस्कृत विभिन्न प्राकृत बोलियो बताने के लिये? वस्तुतः प्राकृत और संस्कृत शब्द स्वयं के बीच सेत का काम करने वाली एक सामान्य साहित्यिक ही इस बात के प्रमाण हैं कि उनमें मूलभाषा कौन है? । भाषा के रूप में अस्तित्व में आई। संस्कृत शब्द स्वयं ही इस बात का सूचक है कि संस्कृत स्वाभाविक या मूल भाषा न होकर एक संस्कारित कृत्रिम यदि हम भाषा - विकास की दृष्टि से इस प्रश्न पर भाषा है। प्राकृत शब्दों एवं शब्द रूपों का व्याकरण द्वारा चर्चा करें तो भी यह स्पष्ट है कि संस्कृत सुपरिमार्जित, संस्कार करके जो भाषा निर्मित होती है, उसे ही संस्कृत सुव्यवस्थित और व्याकरण के आधार पर सुनिबद्ध भाषा कहा जा सकता हैं। जिसे संस्कारित न किया गया हो, है। यदि हम यह मानते हैं कि संस्कृत से प्राकृतें निर्मित हुई वह संस्कृत कैसे होगी? वस्तुतः प्राकृत स्वाभाविक या हैं, तो हमें यह भी मानना होगा कि मानव जाति अपने सहज भाषा है और उसी को संस्कारित करके संस्कृत आदिकाल में व्याकरण शास्त्र के नियमों से संस्कारित . भाषा निर्मित हुई है। इस दृष्टि से प्राकृत मूलभाषा है और संस्कृत भाषा बोलती थी और उसी से अपभ्रष्ट होकर संस्कृत उससे उद्भूत हुई - भाषा। शौरसेनी और शौरसेनी से अपभ्रष्ट होकर मागधी, पैशाची, अपभ्रंश आदि भाषाएँ निर्मित हुई। इसका अर्थ यह भी हेमचन्द्र के पूर्व नमिसाधु ने रुद्रट् के काव्यालङ्कार होगा कि मानव जाति की मूल भाषा अर्थात् संस्कृत से की टीका में प्राकृत और संस्कृत शब्द का अर्थ स्पष्ट कर अपभ्रष्ट होते-होते ही विभिन्न भाषाओं का जन्म हुआ। दिया है। वे लिखते हैं: किन्तु मानव जाति और मानवीय संस्कृति के विकास का सकल जगज्जन्तुनां व्याकरणादिभिरनाहित संस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः तत्र भवं सैव वा प्राकृतम् । आरिसवयणे वैज्ञानिक इतिहास इस बात को कभी भी स्वीकार नहीं सिद्धं, देवाणं अद्धमागहा वाणी इत्यादि, वचनाद्वा प्राक् करेगा। पूर्वकृतं प्राकृतम् - बालमहिलादि सुबोधं सकल भाषा वह तो यही मानता है कि मानवीय बोलियों के निन्धनभूत वचनमुच्यते। मेघनिर्मुक्तजलमिवैक-स्वरूप तदेव संस्कार द्वारा ही विभिन्न साहित्यिक भाषाएँ अस्तित्व में च देशविशेषात् संस्कार करणात् च समासादित विशेष सत् । आई, अर्थात् विभिन्न बोलियों से ही विभिन्न भाषाओं का संस्कृताधुत्तर भेदोनाप्नोति। जन्म हुआ है। वस्तुतः इस विवाद के मूल में साहित्यिक ___- काव्यालंकार टीका, नमिसाधु २/१२ भाषा और लोक भाषा अर्थात् बोली के अन्तर को नहीं | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि समझ पाना है। वस्तुतः प्राकृतें अपने मूल स्वरूप में भाषाएँ शौरसेनी प्राकृतमय ही था, जिसका स्वरूप क्रमशः न होकर बोलियाँ रही हैं। यहाँ हमें यह भी ध्यान रखना अर्धमागमधी के रूप में बदल गया।" इस सन्दर्भ में हमारा चाहिए कि प्राकृत कोई एक बोली नहीं, अपितु बोली समूह प्रश्न यह है कि यदि प्राचीन श्वेताम्बर आगम साहित्य का नाम है। जिस प्रकार प्रारम्भ में विभिन्न प्राकृतों अर्थात् शौरसेनी प्राकृत में था, तो फिर वर्तमान उपलब्ध पाठों में बोलियों को संस्कारित करके एक सामान्य वैदिक भाषा का कहीं भी शौरसेनी की 'द' श्रुति का प्रभाव क्यों नहीं निर्माण हुआ, उसी प्रकार काल क्रम में विभिन्न बोलियों को दिखाई देता। इसके विपरीत हम यह पाते हैं कि दिगम्बर अलग - अलग रूप में संस्कारित करके उनसे विभिन्न परम्परा में मान्य शौरसेनी आगम साहित्य पर अर्धमागधी साहित्यिक प्राकृतों का निर्माण हुआ। अतः यह एक सुनिश्चित और महाराष्ट्री प्राकृत का व्यापक प्रभाव है, इस तथ्य की सत्य है कि बोली के रूप में प्राकृतें मूल एवं प्राचीन हैं और सप्रमाण चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। इस सम्बन्ध में उन्हीं से संस्कृत का विकास एक 'कामन' (Common) दिगम्बर परम्परा के शीर्षस्थ विद्वान प्रो. ए.एन. उपाध्ये भाषा के रूप में हुआ। प्राकृतें बोलियाँ और संस्कृत भाषा का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि प्रवचनसार की भाषा पर हैं। बोली को व्याकरण से संस्कारित करके एक रूपता देने श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का पर्याप्त प्रभाव . से भाषा का विकास होता है। भाषा से बोली का विकास है और अर्धमागधी भाषा की अनेक विशेषताएँ उत्तराधिकार नहीं होता है। विभिन्न प्राकृत बोलियों को आगे चलकर के रूप में इस ग्रन्थ को प्राप्त हुई हैं। व्याकरण के नियमों से संस्कारित किया गया, तो उनसे विभिन्न प्राकृतों का जन्म हुआ। जैसे मागधी बोली से इसमें स्वर परिवर्तन, मध्यवर्ती व्यंजनों के परिवर्तन, मागधी प्राकृत का, शौरसेनी बोली से शौरसेनी प्राकृत का _ 'य' श्रुति इत्यादि अर्धमागधी भाषा के समान ही मिलते और महाराष्ट्र की बोली से महाराष्ट्री प्राकृत का विकास हैं। दूसरे वरिष्ठ दिगम्बर विद्वान् प्रो. खडबडी का कहना हुआ। प्राकत के शौरसेनी, मागधी, पैशाची. महाराष्टी आदि है कि षट्खण्डागम की भाषा शुद्ध शौरसेनी नहीं है। इस भेद तत् तत् प्रदेशों की बोलियों से उत्पन्न हुए हैं न कि प्रकार यहाँ एक ओर दिगम्बर विद्वान् इस तथ्य को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर रहे हैं कि दिगम्बर आगमों पर किसी प्राकृत विशेष से। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कोई भी प्राकृत व्याकरण सातवीं शती से पूर्व का नहीं है। श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी भाषा का प्रभाव है, साथ ही उनमें प्रत्येक प्राकृत के लिये अलग-अलग मॉडल वहाँ यह कैसे माना जा सकता है कि श्वेताम्बर आगम अपनाये हैं। वररुचि के लिए शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत शौरसेनी से अर्धमागधी आगम ही शौरसेनी में रूपान्तरित है, जबकि हेमचन्द्र के लिए शौरसेनी की प्रकृति (महाराष्ट्री) हुए हैं। पुनः अर्धमागधी भाषा के स्वरूप के सम्बन्ध में प्राकृत है, अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है। दिगम्बर विद्वानों में जो भ्रांति प्रचलित रही है, उसका अन्यथा हेमचन्द्र के शौरसेनी के सम्बन्ध में 'शेषं प्राकृतवत् स्पष्टीकरण भी आवश्यक है। सम्भवतः ये विद्वान् अर्धमागधी (८.४.२८६) का अर्थ होगा शौरसेनी महाराष्ट्री से उत्पन्न और महाराष्ट्री के अन्तर को स्पष्ट रूप से नहीं समझ पाये हुई, जो शौरसेनी के पक्षधरों को मान्य नहीं होगा। हैं तथा सामान्यतः अर्धमागधी और महाराष्टी को पर्यायवाची मानकर ही चलते रहें। यही कारण है कि उपाध्ये जैसे क्या अर्धगामधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे? विद्वान् भी 'य' श्रुति को अर्धमागधी का लक्षण बताते हैं' प्राकृत विद्या, जनवरी - मार्च '६६ के सम्पादकीय में जबकि वह मूलतः महाराष्ट्री प्राकृत का लक्षण है, न कि डॉ. सुदीप जैन ने प्रो. टाटिया को यह कहते हुए प्रस्तुत अर्धमागधी का। अर्धमागधी में तो 'त' का न तो लोप किया है कि “श्वेताम्बर जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप होता है और न मध्यवर्ती असंयुक्त 'त' का 'द' होता है। जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति का आलोक यह सत्य है कि श्वेताम्बर आगमों की अर्धमागधी शब्दरूपों के आधार पर उस भाषा के शब्द रूपों को भाषा में कालक्रम में परिवर्तन हुए हैं और उस पर महाराष्ट्री समझाते हैं, वही उसकी प्रकृति कहलाते हैं। यह सत्य है प्राकृत की 'य' श्रुति का प्रभाव आया है, किन्तु यह कि बोली का जन्म पहले होता है, व्याकरण उसके बाद मानना पूर्णतः मिथ्या है कि श्वेताम्बर आगमों का शौरसेनी बनता है। शौरसेनी अथवा प्राकृत की प्रकृति को संस्कृत से अर्धमागधी में रूपान्तरण हुआ है। वास्तविकता यह है मानने का अर्थ इतना ही है कि इन भाषाओं के जो भी कि अर्धमागधी आगम ही माथुरी और वल्लभी वाचनाओं व्याकरण बने हैं, वे संस्कृत शब्द रूपों के आधार पर बने के समय क्रमशः शौरसेनी और महाराष्ट्री से प्रभावित हुए। हैं। यहाँ पर भी ज्ञातव्य है कि प्राकृत का कोई भी व्याकरण प्राकृत के लिखने या बोलने वालों के लिए नहीं टाटिया जी जैसा विद्वान इस प्रकार की मिथ्या धारणा बनाया गया, अपितु उनके लिए बनाया गया, जो सस्कृत को प्रतिपादित करे कि शौरसेनी आगम ही अर्धमागधी में में लिखते या बोलते थे। यदि हमें किसी संस्कृत के रूपान्तरित हुए - यह विश्वसनीय नहीं लगता है। यदि जानकार व्यक्ति को प्राकृत के शब्द या शब्दरूपों को टाटिया जी का यह कथन कि 'पालि त्रिपिटक और समझाना हो, तो हमें उसका आधार संस्कृत को ही बनाना अर्धमागधी आगम मूलतः शौरसेनी में थे और फिर पालि होगा और उसीके आधार पर यह समझाना होगा कि और अर्धमागधी में रूपान्तरित हुए' हैं, तो उन्हें या सुदीप संस्कृत के किस शब्द से प्राकृत का कौन सा शब्द रूप जी को इसके प्रमाण प्रस्तुत करने चाहिए। वस्तुतः जब कैसे निष्पन्न हुआ है। इसलिए जो भी प्राकृत व्याकरण किसी बोली को साहित्यिक भाषा का रूप दिया जाता है, निर्मित किये गये, अपरिहार्य रूप से वे संस्कृत शब्दों या तो एकरूपता के लिए नियम या व्यवस्था आवश्यक होती शब्द रूपों को आधार मानकर प्राकत शब्द या शब्द रूपों हैं और यही नियम भाषा का व्याकरण बनाते हैं। विभिन्न की व्याख्या करते हैं। संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहने प्राकृतों को जब साहित्यिक भाषा का रूप दिया गया, तो का इतना ही तात्पर्य हैं। इसी प्रकार जब मागधी, पैशाची उनके लिए भी व्याकरण के नियम आवश्यक हए और ये या अपभंश की 'प्रकृति' शौरसेनी को कहा जाता है तो व्याकरण के नियम मुख्यतः संस्कृत से गृहीत किये गये। उसका तात्पर्य होता है, प्रस्तुत व्याकरण के नियमों में इन जब व्याकरणशास्त्र में किसी भाषा की प्रकृति बताई भाषाओं के शब्द रूपों को शौरसेनी शब्दों को आधार जाती है, तब वहाँ तात्पर्य होता है कि उस भाषा के मानकर समझाया गया है। प्राकृत प्रकाश की टीका में व्याकरण के नियमों का मूल आदर्श किस भाषा के शब्दरूप वररुचि ने स्पष्टतः लिखा है - शौरसेन्या ये शब्दास्तेषां हैं? उदाहरण के रूप में जब हम शौरसेनी के व्याकरण की प्रकृतिः संस्कृतम् (१२/२) अर्थात् शौरसेनी के जो शब्द हैं चर्चा करते हैं तो यह मानते हैं कि उसके व्याकरण का उनकी प्रकृति या आधार संस्कृत शब्द हैं। आदर्श अपनी कुछ विशेषताओं को छोड़कर, जिसकी यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्राकृत में तीन प्रकार के चर्चा उस भाषा के व्याकरण में होती है, संस्कृत के शब्द शब्द रूप मिलते हैं - तत्सम, तद्भव, और देशज । देशज रूप हैं। शब्द वे हैं जो किसी देश विशेष में किसी विशेष अर्थ में किसी भी भाषा का जन्म बोली के रूप में पहले होता प्रयुक्त हैं। इनके अर्थ की व्याख्या के लिये व्याकरण की है। फिर बोली से साहित्यिक भाषा का जन्म होता है। जब कोई आवश्यकता नहीं होती। तद्भव शब्द वे हैं जो साहित्यिक भाषा बनती है, तब उसके लिए व्याकरण के संस्कृत शब्दों से निर्मित हैं, जबकि संस्कृत के समान शब्द नियम बनाये जाते हैं, ये व्याकरण के नियम जिस भाषा तत्सम हैं। संस्कृत व्याकरण में दो शब्द प्रसिद्ध हैं - | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि प्रकृति और प्रत्यय । इनमें मूल शब्दरूप को प्रकृति कहा उससे निःसंदेह यह सिद्ध होता है कि मूल अर्धमागधी जाता है। मूल शब्द से जो शब्द रूप बना हैं वह तद्भव असंयुक्त मध्यवर्ती 'त' का लोप न होकर वह यथावत् हैं। प्राकृत व्याकरण संस्कृत शब्द से प्राकृत का तद्भव बना रहता है और उसमें लोप की प्रवृति नगण्य ही है शब्द रूप कैसे बना है, इसकी व्याख्या करता है। अतः और यह अर्धमागधी भाषा शौरसेनी और महाराष्ट्री से यहाँ संस्कृत को प्रकृति कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है प्राचीन भी हैं। यदि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से महाराष्ट्री, कि तद्भव शब्दों के सन्दर्भ में संस्कृत शब्द को आदर्श जिसे दिगम्बर विद्वान् भ्रांति से अर्धमागधी कह रहे हैं। मानकर या मॉडल मानकर व्याकरण लिखा गया है। बदले गये तो फिर उनकी प्राचीन प्रतियों में मध्यवर्ती 'त' अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है। संस्कृत शब्द के स्थान पर 'द' पाठ क्यों उपलब्ध नहीं होते हैं जो रूप को मॉडल/आदर्श मानना इसलिए आवश्यक था कि शौरसेनी की विशेषता है। इस प्रसंग में डॉ. टाटिया जी प्राकृत व्याकरण संस्कृत के जानकार विद्वानों को दृष्टि में के नाम से यह भी कहा गया है कि आज भी आचरांग रखकर या उनके लिए ही लिखे गये थे। जब डॉ. सुदीप सूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की जी शौरसेनी के सन्दर्भ में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' का अर्थ प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय टाटिया जी से भाई मॉडल या आदर्श करते हैं तो उन्हें मागधी, पैशाची आदि सुदीप जी से साग्रह निवेदन करुंगा की वे आचारांगके सन्दर्भ में 'प्रकृतिः शौरसेनी' का अर्थ भी यही करना ऋषिभाषित-सूत्रकृतांग आदि की किन्हीं भी प्राचीन प्रतियों चाहिए कि शौरसेनी को मॉडल या आदर्श मानकर इनका में मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द' होने संबन्ध पाठ व्याकरण लिखा गया है - इससे यह सिद्ध नहीं होता है दिखला दें। प्राचीन प्रतियों में जो पाठ मिल रहे हैं, वे कि मागधी आदि प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। अर्धमागधी या आर्ष प्राकृत के हैं, न कि शौरसेनी के। हेमचन्द्र ने महाराष्ट्री प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, यह एक अलग बात है कि कछ शब्दरूप आर्ष अर्धमागधी मागधी आदि प्राकृतों को समझाया है। अतः इससे यह और शौरसेनी में समान हैं। सिद्ध नहीं होता हैं कि महाराष्ट्री प्राचीन है या महाराष्ट्री से वस्तुतः इन प्राचीन प्रतियों में न तो मध्यवर्ती 'त' के मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई। स्थान पर 'द' की प्रधानता देखी जाती है और न “न” के प्राचीन कौन? अर्धमागधी या शौरसेनी स्थान पर “ण” की प्रवृत्ति देखी जाती है, जिसे व्याकरण इसी सन्दर्भ में टाटिया जी के नाम से यह भी में शौरसेनी की विशेषता कहा जाता है। सत्य तो यह है प्रतिपादित किया गया है कि “यदि वर्तमान अर्धमागधी कि अर्धमागधी आगमों का ही शौरसनी रूपान्तर हुआ है, आगम साहित्य को ही मूल आगम साहित्य मानने पर जोर न कि शौरसेनी आगमों का अर्धमागधी रूपान्तरण। यह देंगे तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से १५०० वर्ष सत्य है कि न केवल अर्धमागधी आगमों पर अपितु पहले अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने शौरसेनी आगम-तुल्य कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों पर भी आगम साहित्य को ही ५०० ई.के परवर्ती मानना पड़ेगा। महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का स्पष्ट प्रभाव है, जिसे हम पूर्व ज्ञातव्य है कि यहाँ भी महाराष्ट्री और अर्धमागधी के में सिद्ध कर चुके हैं। अन्तर को न समझते हुए एक भ्रान्ति को खड़ा किया गया है। सर्वप्रथम तो यह समझ लेना चाहिए कि आगमों के क्या पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व अर्धमागधी भाषा और श्वेताम्बर प्राचीन अर्धमागधी के 'त' की प्रधानता वाले पाठ चूर्णियों अर्धमागधी आगमों का अस्तित्व नहीं था? और अनेक प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे हैं। डॉ. सुदीप जी द्वारा टाटिया जी के नाम से उद्धृत ६० जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन संस्कृति का आलोक यह कथन कि 1500 वर्ष पहले अर्धमागधी भाषा का अस्तित्व ही नहीं था' पूर्णतः भ्रान्त है। आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित जैसे आगमों को पाश्चात्य विद्वानों ने एक स्वर से ई.पू. तीसरी-चौथी शताब्दी या उससे भी पहले का माना है। क्या उस समय ये आगम अर्धमागधी भाषा में निबद्ध न होकर शौरसेनी में निबद्ध थे? ज्ञातव्य है कि 'द' श्रुति प्रधान और 'ण' कार की प्रवृति वाली शौरसेनी का जन्म तो उस समय हुआ ही नहीं था, अन्यथा अशोक के अभिलेखों में और मथरा (जो शौरसेनी की जन्म-भमि हैं) के अभिलेखों में कहीं तो इस शौरसेनी के वैशिष्ट्य वाले शब्द रूप उपलब्ध होने चाहिए थे। क्या शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध ऐसा एक भी ग्रन्थ है जो ई.पू. में लिखा गया हो? सत्य तो यह है कि ईसा की चौथी-पाँचवी शताब्दी के पूर्व शौरसेनी में निबद्ध एक भी ग्रन्थ नहीं था, जबकि मागधी के अभिलेख और अर्धमागधी के आगम ई.पू. तीसरी शती से उपलब्ध हो रहे हैं। पुनः यदि ये लोग जिसे अर्धमागधी कह रहे हैं, उसे महाराष्ट्री भी मान ले तो उसके भी ग्रन्थ ईसा की प्रथम शताब्दी से उपलब्ध होते हैं। सातवाहन काल की गाथा-सप्तशती महाराष्ट्री प्राकृत का प्राचीन ग्रन्थ हैं, जो इसी ई.पू. प्रथम शती से ईसा की प्रथम शती के मध्य रचित है। पुनः यह एक संकलन ग्रन्थ है, जिसमें अनेक ग्रन्थों से गाथाएँ संकलित की गई हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि इसके पूर्व भी महाराष्ट्री प्राकृत में ग्रन्थ रचे गये थे। कालिदास के नाटक, जिनमें शौरसेनी का प्राचीनतम रूप मिलता है, भी ईसा की चतुर्थ शताब्दी के बाद के ही हैं। कुन्दकुन्द के ग्रन्थ स्पष्ट रूप से न केवल अर्धमागधी आगमों से, अपितु परवर्ती 'य' श्रुति प्रधान महाराष्ट्री से भी प्रभावित हैं। किसी भी स्थिति में ईसा की ५वीं शताब्दी के पूर्व के सिद्ध नहीं होते हैं। षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान, सप्तभंगी आदि लगभग ५वीं शती में निर्मित अवधारणाओं की उपस्थिति उन्हें श्वेताम्बर आगमों और उमास्वाति के तत्त्वार्थसत्र (लगभग चतर्थ शती) से परवती ही सिद्ध करती है, क्योंकि इनमें ये अवधारणाएँ अनुपस्थित हैं। इस सम्बन्ध में मैंने अपने, ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्तः एक विश्लेषण' और 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में विस्तार से प्रकाश डाला है। इस प्रकार सत्य तो यह है कि अर्धमागधी भाषा या अर्धमागधी आगम नहीं, अपितु शौरसेनी भाषा और शौरसेनी आगम ही ईसा. की ५वीं शती के पश्चात् अस्तित्व में आये। अच्छा होगा कि भाई सुदीप जी पहले मागधी और पालि तथा अर्धमागधी और महाराष्ट्री के अन्तर को, इनमें प्रत्येक के लक्षणों को तथा जैन आगमिक साहित्य के ग्रन्थों के कालक्रम को और जैन इतिहास को तटस्थ दृष्टि से समझ लें और फिर प्रमाण सहित अपनी कलम निर्भीक रूप से चलाएं, व्यर्थ की आधारहीन भ्रान्तियाँ खड़ी करके समाज में कटुता के बीज न बोएं। 0 प्रोफेसर डॉ. सागरमल जी जैन का जन्म ताः 22 फरवरी सन् 1632 में शाजापुर (म.प्र.) में हुआ। आपने एम.ए.एवं साहित्यरत्न की परीक्षाएं श्रेष्ठ अंकों से उत्तीर्ण की। आप इंदौर, रीवाँ, भोपाल और ग्वालियर के महाविद्यालयों में दर्शन शास्त्र के प्रवक्ता, आचार्य एवं विभागाध्यक्ष रहे। सन् 1676 से 1666 तक आप पार्श्वनाथ विद्यापीठ शोध संस्थान, वाराणसी के निदेशक रहे। भारत और विदेशों में आपने अनेक व्याख्यान दिए। ओजस्वी वक्ता, लेखक, समालोचक के रूप में सुविख्यात डा. जैन ने जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का विशेष अध्ययन किया। आपने बीस से अधिक शोधपूर्ण ग्रन्थों की रचना की। आपके सैकड़ों शोधपूर्ण निबंध अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। “श्रमण" के प्रधान संपादक। आपके निर्देशन में तीस छात्रों ने पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। जैन विद्या के शीर्षस्थ विद्वान् / अनेक शैक्षणिक, सामाजिक व सांस्कृतिक संस्थाओं के पदाधिकारी। | जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? 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