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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
उदाहरण दे रहा हूँ, जिनसे उनके भाषिक तत्व की एकरूपता (३२), वुच्चइ (४५), कुव्वइ (८१, २८६, ३१६, ३२१, का दावा कितना खोखला है, यह सिद्ध हो जाता है। मात्र ३२५, ३४०) परिणमइ (७६,७६,८०), (ज्ञातव्य है कि यही नहीं, इससे यह भी सिद्ध होता है कि शौरसेनी समयसार के इसी संस्करण की गाथा क्रमांक ७७,७८,७६ आगम-तुल्य ग्रन्थ न केवल अर्धमागधी से प्रभावित हैं, में परिणमदि रूप भी मिलता है) इसी प्रकार के अन्य अपितु उससे परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत से भी प्रभावित महाराष्ट्री प्राकृत रूप, जैसे वेयई (८४), कुणई (७१,
६६, २८६, २६३, ३२२, ३२६), होइ (६४, ३०६, १. आत्मा के लिये अर्धमागधी में आता, अत्ता,
१६७, ३४६, ३५८), करेई (६४,२३७, २३८ ३२८, अप्पा आदि शब्द रूपों के प्रयोग उपलब्ध हैं, जबकि
__ ३४८), हवई (१४१, ३२६, ३२६), जाणई (१८५, शौरसेनी में मध्यवर्ती 'त' का “द” होने के कारण "आदा"
३१६, ३१६, ३२०, ३६१), बहइ (१८६), सेवइ (१६७) रूप बनाता है। समयसार में “आदा" के साथ-साथ “अप्पा"
मरइ (२५७, २६०) ३२८, ३४८), हवई (१४१, ३२६, शब्द रूप जो कि अर्धमागधी का है अनेकबार प्रयोग में
३२६), जाणई (१८५, ३१६, ३१६, ३२०, ३६१), आया है। केवल समयसार में ही नहीं, अपितु नियमसार
बहइ (१८६) सेवइ (१६७), मरइ (२५७,२६०), (जबकि
गाथा २५८ में मरदि रूप भी है इसी प्रकार, सवइ (२६२, (१२०,१२१,१८३) आदि में भी “अप्पा" शब्द का प्रयोग
२६१), घिप्पइ (२६६), उप्पज्जइ (३०८), विणस्सइ
(३१२, ३४५), दीसइ (३२३) आदि भी मिलते हैं। ये २. 'श्रुत' का शौरसेनी रूप “सुद" बनता है। शौरसेनी
तो कुछ ही उदाहरण हैं- ऐसे अनेकों महाराष्ट्री प्राकृत के आगम-तुल्य ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर “सुद" "सुदकेवली"
क्रिया रूप समयसार में उपलब्ध हैं। न केवल समयसार शब्द के प्रयोग भी हुए हैं, जबकि समयसार (वर्णी ग्रन्थमाला)
अपितु नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि की गाथा ६ एवं १० में स्पष्ट रूप से “सुयकेवली” “सुयणाण"
भी यही स्थिति है। शब्दरूपों का भी प्रयोग मिलता है। ये दोनों महाराष्ट्री शब्द रूप हैं और परवर्ती भी हैं। अर्धमागधी में तो सदैव
बारहवीं शती में रचित वसुनन्दीकृत श्रावकाचार 'सुत' शब्द का प्रयोग होता है।
(भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण) की स्थिति तो कुन्दकुन्द के
इन ग्रन्थों से भी बदतर है उसकी प्रारम्भ की सौ गाथाओं ३. शौरसेनी में “द” की प्रधानता है, साथ ही, उसमें
में 40% क्रियारूप महाराष्ट्री प्राकृत के हैं। “लोप" की प्रवृत्ति अत्यल्प है। अतः उसके क्रिया रूप "हवदि, होदि, कुणदि, गिण्हदि, कुत्तदि, परिणमदि, भण्णदि,
इसके फलित यह होता है कि तथाकथित शौरसेनी पस्सदि आदि बनते हैं। इन क्रिया रूपों का प्रयोग उन
आगमों के भाषागत स्वरूप में तो अर्धमागधी आगमों की ग्रन्थों में हुआ भी है, किन्तु उन्हीं ग्रन्थों के क्रिया रूपों पर
अपेक्षा भी न केवल अधिक वैविध्य है, अपितु उस महाराष्ट्री प्राकृत का कितना व्यापक प्रभाव है, इसे निम्न
महाराष्ट्री प्राकृत का भी व्यापक प्रभाव है, जिसे सुदीप
जी शौरसेनी से परवर्ती मान रहे हैं। यदि ये ग्रन्थ, प्राचीन उदाहरणों से जाना जा सकता है
होते, तो इन पर अर्धमागधी और महाराष्ट्री का प्रभाव समयसार, वर्णी ग्रन्थमाला (वाराणसी)
कहाँ से आता? प्रो. ए.एम. उपाध्ये ने प्रवचनसार की जाणइ (१०), हवई (११३१५, ३८६, ३८४), मुणइ भूमिका में स्पष्टतः यह स्वीकार किया है कि उसकी भाषा
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जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? |
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