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जैन संस्कृति का आलोक
कि अर्धमागधी में लिखित आगम भी जब मथुरा में संकलित और सम्पादित हुए तो उनका भाषिक स्वरूप अर्धमागधी की अपेक्षा शौरसेनी के निकट हो गया और जब वलभी में लिखे गए तो वह महाराष्ट्री से प्रभावित हो गया। यह अलग बात है कि ऐसा परिवर्तन सम्पूर्ण रूप में न हो सका और उनमें अर्धमागधी के तत्व भी बने रहे। अतः अर्धमागधी और शौरसेनी आगमों में भाषिक स्वरूप का जो वैविध्य है, वह एक वास्तविकता है, जिसे हमें स्वीकार करना होगा।
देशकालगत उच्चारण-भेद से उनको लिपिबद्ध करते समय उनके भाषिक स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया। मात्र यही नहीं, लिखित प्रतिलिपियों के पाठ भी प्रतिलिपिकारों की असावधानी या क्षेत्रीय बोली से प्रभावित हुए। श्वेताम्बर आगमों की प्रतिलिपियाँ मख्यतः गजरात और राजस्थान में हुई, अतः उन पर महाराष्ट्री का प्रभाव आ गया।
५. भारत में कागज का प्रचलन न होने से भोजपत्रों या ताड़पत्रों पर ग्रंथों को लिखवाना और उन्हें सुरक्षित रखना जैन मुनियों की अहिंसा एवं अपरिग्रह की भावना के प्रतिकूल था। लगभग ईस्वी सन् की ५वीं शती तक इस कार्य को पाप-प्रवृत्ति माना जाता था तथा इसके लिए दण्ड की व्यवस्था भी थी। फलतः महावीर के पश्चात् लगभग १००० वर्ष तक जैन साहित्य श्रुत-परम्परा पर ही आधारित रहा । श्रुत-परम्परा पर आधारित होने से आगमों के भाषिक स्वरूप में वैविध्य आ गया।
६. आगमिक एवं आगम-तुल्य साहित्य में आज भाषिक रूपों का जो वैविध्य देखा जाता है, उसका एक कारण लहियों (प्रतिलिपिकारों) की असावधानी भी रही है। प्रतिलिपिकार जिस क्षेत्र का होता था, उस पर उस क्षेत्र की बोली/भाषा का प्रभाव रहता था और असावधानी से अपनी प्रादेशिक बोली के शब्द रूपों को लिख देता था। उदाहरण के रूप में चाहे मूलपाठ में “गच्छति" लिखा हो, लेकिन यदि उस क्षेत्र में प्रचलन में “गच्छइ" का व्यवहार है, तो प्रतिलिपिकार “गच्छइ” रूप ही लिख देगा।
७. जैन आगम एवं आगम-तुल्य ग्रन्थों में आये भाषिक परिवर्तनों का एक कारण यह भी है कि वे विभिन्न कालों एवं प्रदेशों में सम्पादित होते रहे हैं। सम्पादकों ने उनके प्राचीन स्वरूप को स्थिर रखने का प्रयत्न नहीं किया, अपितु उन्हें सम्पादित करते समय अपने युग और क्षेत्र की प्रचलित भाषा और व्याकरण के आधार पर उनमें परिवर्तन भी कर दिया। यही कारण है
क्या शौरसेनी आगमों के भाषिक स्वरूप में एक रूपता है?
किन्तु डॉ. सुदीप जैन का दावा कि “आज भी शौरसेनी आगम साहित्य में भाषिक तत्व की एकरूपता है, जबकि अर्धमागधी आगम साहित्य में भाषा के विविध रूप पाये जाते हैं। उदाहरणस्वरूप शौरसेनी में सर्वत्र “ण” का प्रयोग मिलता है, कहीं भी 'न' का प्रयोग नहीं है। जबकि, अर्धमागधी में नकार के साथ-साथ णकार का प्रयोग भी विकल्पतः मिलता है। यदि शौरसेनी युग में नकार का प्रयोग आगम भाषा में प्रचलित होता तो दिगम्बर साहित्य में कहीं तो विकल्प से प्राप्त होता।"; प्राकृत विया जुलाई-सितम्बर '६६ पृ.७
यहाँ डॉ. सुदीप जैन ने दो बातें उठाई हैं, प्रथम, शौरसेनी आगम साहित्य की भाषिक एकरूपता की ओर दूसरी 'ण' कार और 'न' कार की। क्या सुदीप जी आपने शौरसेनी आगम साहित्य के उपलब्ध संस्करणों का भाषाशास्त्र की दृष्टि से कोई प्रामाणिक अध्ययन किया है? यदि आपने किया होता तो आप ऐसा खोखला दावा प्रस्तुत नहीं करते? आप केवल णकार का ही उदाहरण क्यों देते हैं- वह तो महाराष्ट्र और शौरसेनी दोनों में सामान्य है। दूसरे शब्द रूपों की चर्चा क्यों नहीं करते? नीचे मैं दिगम्बर शौरसेनी आगम-तुल्य ग्रन्थों से ही कुछ
| जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ?
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