________________
जैन संस्कृति का आलोक
पर अर्धमागधी का प्रभाव है। प्रो. खडबडी ने तो ०४. मथुरा, प्राकृत काल निर्देश नहीं दिया है, किन्तु षट्खण्डागम की भाषा को भी शुद्ध शौरसेनी नहीं माना जे.एफ. फलीट के अनुसार लगभग १४-१३ ई. पूर्व
प्रथम शती का होना चाहिए पृ. १५ क्रमांक ३ 'न' कार और 'ण' कार में कौन प्राचीन?
मो 'अरहतो वर्धमानस्य' अब हम नकार और णकार के प्रश्न पर आते हैं। ०६. मथुरा प्राकृत सम्भवतः १४-१३ ई.पू. प्रथमशती भाई सुदीप जी, आपका यह कथन सत्य है कि अर्धमागधी पृ.१५ लेख क्रमांक १०, ‘मा अरहतपूजा' में नकार और णकार दोनों पाये जाते हैं। किन्तु, दिगम्बर ०७. मथुरा प्राकृत पृ.१७ क्रमांक १४ 'मा अरहंतानं शौरसेनी आगम-तुल्य गन्थों मे सर्वत्र णकार का पाया श्रमणश्रविका जाना यही सिद्ध करता हैं कि जिस शौरसेनी को आप अरिष्टनेमी के काल से प्रचलित प्राचीनतम प्राकृत कहना
०८. मथुरा प्राकृत पृ.१७ क्रमांक १५ 'नमो अरहंतानं' चाहते हैं, उस णकार प्रधान शौरसेनी का जन्म तो ईसा ०६. मथुरा प्राकृत पृ.१८ क्रमांक १६ 'नमो अरहतो की तीसरी शताब्दी तक हुआ भी नहीं था। “ण” की
महाविरस' अपेक्षा 'न' का प्रयोग प्राचीन है। ईस्वी पूर्व द्वितीय शती १०. मथरा, प्राकत दविष्क संवत ३६-हस्तिस्तम्भ पृ.३४, के अशोक अभिलेख एवं ईस्वी पूर्व द्वितीय शती के
क्रमांक ४३ 'अयर्येन रुद्रदासेन अरहंतनं पुजाये। खारवेल के शिलालेख से लेकर मथुरा के शिलालेख (ई.पू. दूसरी शती से ईसा की दूसरी शती तक) इन लगभग ८० ।
११. मथुरा प्राकृत भग्न वर्ष ६३ पृ.४६ क्रमांक ६७
'नमो अर्हतो महाविरस्य' जैन शिलालेखों में एक भी ‘णकार' का प्रयोग नहीं है। इनमें शौरसेनी प्राकृत के रूपों यथा “णमो” “अरिहंताणं" १२. मथुरा, प्राकृत वासुदेव सं. ६८ पृ.४७ क्रमांक ६०
और “णमो वड्ढमाणं" का सर्वथा अभाव है। यहाँ हम 'नमो अरहतो महावीरस्य' केवल उन्हीं प्राचीन शिलालेखों को उद्धृत कर रहे हैं,
१३. मथुरा, प्राकृत पृ.४८ क्रमांक ७१ 'नमो अरहंतानं जिनमें इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। ज्ञातव्य है कि ये
सिहकस' सभी अभिलेखीय साक्ष्य जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ से प्रस्तुत हैं, जो दिगम्बर जैन समाज द्वारा ही प्रकाशित हैं। १४. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ.४८ क्रमांक ७२ 'नमो अरहंतान' ०१. हाथीगुफा बिहार का शिलालेख - प्राकृत, जैन सम्राट् १५. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ.४८ क्रमांक ७३ 'नमो अरहंतानं' खारवेल, मौर्यकाल १६५वाँ वर्ष, पृ. ४ लेख क्रमांक
१६. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ.४८ क्रमांक ७५ 'अरहंतानं २ - 'नमो अरहंतानं, नमो सवसिधानं'
वधमानस्य' ०२. वैकुण्ठ स्वर्गपुरी गुफा, उदयगिरी, बिहार, - प्राकृत, मौर्यकाल १६५ वाँ वर्ष लगभग ई.पू. दूसरी शती
१७. मथुरा, प्राकृत भग्न पृ.५१, क्रमांक ८० 'नमो
अरहंतान...द्वन' पृ.११ ले.क. 'अरहन्तपसादन' ०३. मथुरा, प्राकृत, महाक्षत्रप शोडाशके २१ वर्ष का प्र. शूरसेन प्रदेश, जहाँ से शौरसेनी प्राकृत का जन्म १२ क्रमांक ५, नम अहरतो वधमानस'
हुआ, वहाँ के शिलालेखों में दूसरी-तीसरी शती तक मध्यवर्ती
.
| जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ?
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org