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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
प्रकृति और प्रत्यय । इनमें मूल शब्दरूप को प्रकृति कहा उससे निःसंदेह यह सिद्ध होता है कि मूल अर्धमागधी जाता है। मूल शब्द से जो शब्द रूप बना हैं वह तद्भव असंयुक्त मध्यवर्ती 'त' का लोप न होकर वह यथावत् हैं। प्राकृत व्याकरण संस्कृत शब्द से प्राकृत का तद्भव बना रहता है और उसमें लोप की प्रवृति नगण्य ही है शब्द रूप कैसे बना है, इसकी व्याख्या करता है। अतः और यह अर्धमागधी भाषा शौरसेनी और महाराष्ट्री से यहाँ संस्कृत को प्रकृति कहने का तात्पर्य मात्र इतना ही है प्राचीन भी हैं। यदि श्वेताम्बर आगम शौरसेनी से महाराष्ट्री, कि तद्भव शब्दों के सन्दर्भ में संस्कृत शब्द को आदर्श जिसे दिगम्बर विद्वान् भ्रांति से अर्धमागधी कह रहे हैं। मानकर या मॉडल मानकर व्याकरण लिखा गया है। बदले गये तो फिर उनकी प्राचीन प्रतियों में मध्यवर्ती 'त' अतः प्रकृति का अर्थ आदर्श या मॉडल है। संस्कृत शब्द के स्थान पर 'द' पाठ क्यों उपलब्ध नहीं होते हैं जो रूप को मॉडल/आदर्श मानना इसलिए आवश्यक था कि शौरसेनी की विशेषता है। इस प्रसंग में डॉ. टाटिया जी प्राकृत व्याकरण संस्कृत के जानकार विद्वानों को दृष्टि में के नाम से यह भी कहा गया है कि आज भी आचरांग रखकर या उनके लिए ही लिखे गये थे। जब डॉ. सुदीप सूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों में शौरसेनी के शब्दों की जी शौरसेनी के सन्दर्भ में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' का अर्थ प्रचुरता मिलती है। मैं आदरणीय टाटिया जी से भाई मॉडल या आदर्श करते हैं तो उन्हें मागधी, पैशाची आदि सुदीप जी से साग्रह निवेदन करुंगा की वे आचारांगके सन्दर्भ में 'प्रकृतिः शौरसेनी' का अर्थ भी यही करना ऋषिभाषित-सूत्रकृतांग आदि की किन्हीं भी प्राचीन प्रतियों चाहिए कि शौरसेनी को मॉडल या आदर्श मानकर इनका में मध्यवर्ती 'त' के स्थान पर 'द' होने संबन्ध पाठ व्याकरण लिखा गया है - इससे यह सिद्ध नहीं होता है दिखला दें। प्राचीन प्रतियों में जो पाठ मिल रहे हैं, वे कि मागधी आदि प्राकृतों की उत्पत्ति शौरसेनी से हुई है। अर्धमागधी या आर्ष प्राकृत के हैं, न कि शौरसेनी के। हेमचन्द्र ने महाराष्ट्री प्राकृत को आधार मानकर शौरसेनी, यह एक अलग बात है कि कछ शब्दरूप आर्ष अर्धमागधी मागधी आदि प्राकृतों को समझाया है। अतः इससे यह और शौरसेनी में समान हैं। सिद्ध नहीं होता हैं कि महाराष्ट्री प्राचीन है या महाराष्ट्री से
वस्तुतः इन प्राचीन प्रतियों में न तो मध्यवर्ती 'त' के मागधी, शौरसेनी आदि उत्पन्न हुई।
स्थान पर 'द' की प्रधानता देखी जाती है और न “न” के प्राचीन कौन? अर्धमागधी या शौरसेनी
स्थान पर “ण” की प्रवृत्ति देखी जाती है, जिसे व्याकरण इसी सन्दर्भ में टाटिया जी के नाम से यह भी में शौरसेनी की विशेषता कहा जाता है। सत्य तो यह है प्रतिपादित किया गया है कि “यदि वर्तमान अर्धमागधी कि अर्धमागधी आगमों का ही शौरसनी रूपान्तर हुआ है, आगम साहित्य को ही मूल आगम साहित्य मानने पर जोर न कि शौरसेनी आगमों का अर्धमागधी रूपान्तरण। यह देंगे तो इस अर्धमागधी भाषा का आज से १५०० वर्ष सत्य है कि न केवल अर्धमागधी आगमों पर अपितु पहले अस्तित्व ही नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने शौरसेनी आगम-तुल्य कुन्दकुन्द आदि के ग्रन्थों पर भी आगम साहित्य को ही ५०० ई.के परवर्ती मानना पड़ेगा। महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का स्पष्ट प्रभाव है, जिसे हम पूर्व ज्ञातव्य है कि यहाँ भी महाराष्ट्री और अर्धमागधी के में सिद्ध कर चुके हैं। अन्तर को न समझते हुए एक भ्रान्ति को खड़ा किया गया है। सर्वप्रथम तो यह समझ लेना चाहिए कि आगमों के
क्या पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व अर्धमागधी भाषा और श्वेताम्बर प्राचीन अर्धमागधी के 'त' की प्रधानता वाले पाठ चूर्णियों
अर्धमागधी आगमों का अस्तित्व नहीं था? और अनेक प्राचीन प्रतियों में आज भी मिल रहे हैं। डॉ. सुदीप जी द्वारा टाटिया जी के नाम से उद्धृत
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जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? |
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