Book Title: Jain Agamo ki Mul Bhasha Ardhamagadhi ya Shaurseni Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf View full book textPage 2
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि हों अथवा दिगम्बरों के षट्खण्डागमसूत्र, समयसार आदि प्राकृत में निबद्ध हुई। उन्होंने स्पष्ट मत प्रकट किया कि हों, सभी शौरसेनी प्राकृत में ही निबद्ध थे। उन्होंने आगे आचारांग, उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग और दशवैकालिक में सप्रमाण स्पष्ट किया कि बौद्धों ने बाद में श्रीलंका में एक अर्धमागधी भाषा का उत्कृष्ट रूप है"। बृहत्संगीति में योजनापूर्वक शौरसेनी में निबद्ध बौद्ध साहित्य दूसरी और प्राकृत विद्या के सम्पादक डॉ. सुदीप जी का मागधीकरण किया और प्राचीन शौरसेनी निबद्ध बौद्ध का कथन है कि उनके व्याख्यान की टेप हमारे पास साहित्य ग्रंथों को अग्निसात कर दिया। इसी प्रकार श्वेताम्बर उपलब्ध है और हमने उन्हें अविकल रूप से यथावत् जैन साहित्य का भी प्राचीन रूप शौरसेनी प्राकृत में ही दिया है। मात्र इतना ही नहीं, डॉ. सुदीप जी का तो यह था, जिसका रूप क्रमशः अर्धमागधी में बदल गया। यदि भी कथन है कि तलसीप्रज्ञा के खण्डन के बाद भी वे हम वर्तमान अर्धमागधी आगम साहित्य को ही मूल श्वेताम्बर आगम साहित्य मानने पर जोर देंगें, तो इस अर्धमागधी टाटिया जी से मिले हैं और टाटिया जी ने उन्हें कहा है भाषा का आज से पन्द्रह सौ वर्ष के पहिले अस्तित्व ही कि वे अपने कथन पर आज भी दृढ़ हैं। टाटिया जी के नहीं होने से इस स्थिति में हमें अपने आगम साहित्य को इस कथन को उन्होंने प्राकृत विद्या जुलाई - सितम्बर '६६ ५०० वर्ष ई. के परवर्ती मानना पड़ेगा। उन्होंने स्पष्ट ___ के अंक में निम्नलिखित शब्दों मे प्रस्तुत किया है:किया कि आज भी आचारांगसूत्र आदि की प्राचीन प्रतियों __मैं संस्कृत विद्यापीठ की व्याख्यानमाला में प्रस्तुत में शौरसेनी के शब्दों की प्रचुरता मिलती है, जबिक नये तथ्यों पर पूर्णतः दृढ़ हूँ तथा यह मेरी तथ्याधारित स्पष्ट प्रकाशित संस्करणों में उन शब्दों का अर्धमागधीकरण हो अवधारणा है जिससे विचलित होने का प्रश्न ही नहीं गया है। उन्होंने कहा कि पक्ष-व्यामोह के कारण ऐसे उठता है।” (पृ.६) परिवर्तनों से हम अपने साहित्य का प्राचीन मूल रूप खो रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि दिगम्बर जैन यह समस्त विवाद दो पत्रिकाओं के माध्यम से दोनों साहित्य में ही शौरसेनी भाषा के प्राचीन रूप सुरक्षित सम्पादकों के मध्य है, किन्तु इस विवाद में सत्यता क्या है उपलब्ध हैं।" और डॉ. टाटिया का मूल मन्तव्य क्या है? इसका निर्णय - प्राकृत विया, जनवरी-मार्च ६६ का सम्पादकीय । तो तभी सम्भव है जब डॉ. टाटियाजी स्वयं इस सम्बन्ध में लिखित वक्तव्य दें, किन्तु वे इस संबंध में मौन हैं। मैंने निस्संदेह प्रो. टाटिया जैन और बौद्ध दर्शन के वरिष्ठतम स्वयं उन्हें पत्र लिखा था, किन्तु उनका कोई प्रत्युत्तर नहीं विद्वानों में एक हैं तथा उनके कथन का कोई अर्थ और आधार भी होगा। किन्तु ये कथन उनके अपने हैं या उन्हें आया। मैं डॉ. टाटियाजी की उलझन समझता हूँ। एक अपने पक्ष की पुष्टि हेतु तोड़-मोड़ कर प्रस्तुत किया गया ओर कुन्दकुन्द भारती ने उन्हें उपकृत किया है, तो दूसरी है, यह एक विवादास्पद प्रश्न है, क्योंकि एक ओर तुलसी ओर वे जैन विश्वभारती की सेवा में रहे हैं, जब जिस प्रज्ञा के सम्पादक का कहना है कि टाटिया जी ने इसका मंच से बोले होंगे भावावेश में उनके अनुकूल वक्तव्य दे खण्डन किया है। वे तुलसी प्रज्ञा (अप्रैल जून, ६६ खण्ड दिये होंगे और अब स्पष्ट खण्डन भी कैसे करें? फिर भी २२, अंक ४) में लिखते हैं कि "डॉ. नथमल टाटिया ने मेरी अन्तरात्मा यह स्वीकार नहीं करती हैं कि डॉ. टाटियाजी दिल्ली की एक पत्रिका में छपे और उनके नाम से प्रचारित जैसा गम्भीर विद्वान् बिना प्रमाण के ऐसे वक्तव्य दे दे। इस कथन का खण्डन किया है कि महावीर-वाणी शौरसेनी कहीं न कहीं शब्दों की कोई जोड़-तोड़ अवश्य हो रही ४४ जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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