Book Title: Jain Agamo ki Mul Bhasha Ardhamagadhi ya Shaurseni
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

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Page 14
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है । प्राचीन पालि ग्रन्थों की एवं प्राचीन अर्धमागधी आगमों की भाषा में अधिक दूरी नहीं है । जिस समय अर्धमागधी और पालि में ग्रन्थ रचना हो रही थी, उस समय तक शौरसेनी एक बोली थी, न कि एक साहित्यिक भाषा । साहित्यिक भाषा के रूप में उसका जन्म तो ईसा की तीसरी शताब्दी के बाद ही हुआ है । संस्कृत के पश्चात् सर्वप्रथम साहित्यिक भाषा के रूप में यदि कोई भाषाएं विकसित हुई है तो वे अर्धमागधी और पालि ही हैं, न कि शौरसेनी । शौरसेनी का कोई भी ग्रन्थ या नाटकों के अंश ईसा की तीसरी - चौथी शती से पूर्व का नहीं हैं जबकि पालि त्रिपिटक और अर्धमागधी आगम साहित्य के अनेक ग्रन्थ ई.पू. तीसरी - चौथी शती में निर्मित हो चुके थे । 'प्रकृतिः शौरसेनी' का सम्यक् अर्थः जो विद्वान् मागधी या अर्धमागधी को शौरसेनी से परवर्ती और उसीसे विकसित मानते हैं, वे अपने कथन का आधार वररुचि (लगभग ७वीं शती) के प्राकृत प्रकाश और हेमचन्द्र (लगभग १२वीं शताब्दी) के प्राकृत व्याकरण के निम्नलिखित सूत्रों को बताते हैं - अ. 9. प्रकृतिः शौरसेनी । । १० / २ । । अस्याः पैशाच्याः प्रकृतिः शौरसेनी । स्थितायां शौरसेन्यां पैशाची - लक्षणं प्रवर्ततितव्यम् । २. प्रकृतिः शौरसेनी ।।११/२।। २. अस्याः मागध्याः प्रकृतिः शौरसेनीति वेदितव्यम् । वररुचि कृत 'प्राकृत प्रकाश' ब. १. शेष शौरसेनीवत् । । ८ / ४ / ३०२ ।। मागध्यां यदुक्तं, ततोअन्यच्छौरसेनीवद् द्रष्टव्यम् । ५६ - शेष शौरसेनीवत् ।। ८/४/३२३ ।। पैशाच्यां यदुक्तं, ततोअन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद् भवति । Jain Education International ३. शेष शौरसेनीवत् ।। ८/४/४४६ ।। अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्य भवति । अपभ्रंशभाषायां प्रायः शौरसेनी भाषातुल्य कार्य जायते; शौरसेनी-भाषायाः ये नियमाः सन्ति, तेषां प्रवृत्तिरपभ्रंशभाषायामपि जायते - हेमचन्द्र कृत 'प्राकृत व्याकरण' अतः इस प्रसंग में यह आवश्यक है कि हम सर्वप्रथम इन सूत्रों में 'प्रकृति' शब्द का वास्तविक तात्पर्य क्या है, इसे समझें। यदि हम यहाँ प्रकृति का अर्थ उद्भव का कारण मानते हैं, तो निश्चित ही इन सूत्रों से यह फलित होता है कि मागधी या पैशाची का उद्भव शौरसेनी से हुआ, किन्तु शौरसेनी को एकमात्र प्राचीन भाषा मानने वाले तथा मागधी और पैशाची को उससे उद्भूत मानने वाले ये विद्वान् वररुचि के उस सूत्र को भी उद्धृत क्यों नहीं करते, जिसमें शौरसेनी की प्रकृति संस्कृत बताई गयी है, यथा “ शौरसेनी - १२ / १ टीका - शूरसेनानां भाषा शौरसेनी साच लक्ष्यलक्षणाभ्यां स्फुटीकियते इति वेदितव्यम् । अधिकारसूत्रमेतदा परिच्छेद समाप्तेः १२/१ प्रकृतिः संस्कृतम्१२/२ टीका - शौरसेन्यां ये शब्दास्तेषां प्रकृतिः संस्कृतम् ।। प्राकृत प्रकाश /१२/२/" अतः उक्त सूत्र के आधार पर हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शौरसेनी प्राकृत संस्कृत से उत्पन्न हुई । इस प्रकार प्रकृति का अर्थ उद्गम स्थल करने पर उसी प्राकृत प्रकाश के आधार पर यह मानना होगा कि मूलभाषा संस्कृत थी और उसी से शौरसेनी उत्पन्न हुई। क्या शौरसेनी के पक्षधर इस सत्य को स्वीकार करने को तैयार हैं? भाई सुदीप जी, जो शौरसेनी के पक्षधर हैं और 'प्रकृतिः शौरसेनी' के आधार पर मागधी को शौरसेनी से उत्पन्न बताते हैं, वे स्वयं भी 'प्रकृतिः संस्कृतम् प्राकृत प्रकाश १२ / २' के आधार पर यह मानने को तैयार नहीं हैं कि प्रकृति का अर्थ उससे उत्पन्न हुई ऐसा हैं वे स्वयं लिखते हैं- “ आज जितने भी प्राकृत व्याकरण शास्त्र उपलब्ध हैं । वे सभी संस्कृत भाषा में हैं - जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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