Book Title: Jain Agamo ki Mul Bhasha Ardhamagadhi ya Shaurseni
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि कहते हैं। दुर्भाग्य तो यह है कि जिन शौरसेनी आगमों गये। इसी क्रम में ईसा की चतुर्थ शती में अर्धमागधी की दुहाई दी जा रही है, उनमें से अनेक आगम ५० आगमों के शौरसेनी प्रभावित और महाराष्ट्री प्रभावित प्रतिशत से अधिक अर्धमागधी और महाराष्ट्री प्राकृत से संस्करण अस्तित्व में आये। प्रभावित हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर मान्य आगमों में २. आगम साहित्य में जो भाषिक परिवर्तन हुए प्राकृत के रूपों का जो वैविध्य है, उसके कारणों की उसका दूसरा कारण यह था कि जैन भिक्षु संघ में विभिन्न विस्तृत चर्चा मैंने अपने लेख 'जैन आगमों में हुआ भाषिक प्रदेशों के भिक्षगण सम्मिलित थे। अपनी-अपनी प्रादेशिक स्वरूप परिवर्तन : एक विमर्श' सागर जैन विद्या भारती - बोलियों से प्रभावित होने के कारण उनकी उच्चारण शैली भाग १, पृ. २३६ - २४३ में की है। प्रस्तुत प्रसंग में । में भी स्वाभाविक भिन्नता रहती थी। फलतः उनके द्वारा उसका निम्नलिखित अंश दृष्टव्य है - कण्ठस्थ आगम साहित्य के भाषिक स्वरूप में भिन्नताएँ ___ “जैन आगमिक एवं आगम रूप में मान्य अर्धमागधी आ गयीं। तथा शौरसेनी ग्रन्थों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन क्यों ३. जैन भिक्षु सामान्यतः भ्रमणशील होते हैं। हुआ? इस प्रश्न का उत्तर अनेक रूपों में दिया जा सकता उनकी भ्रमणशीलता के कारण उनकी बोलियों, भाषाओं हैं। वस्तुतः इन ग्रन्थों में हुए भाषिक परिवर्तनों का कोई पर अन्य प्रदेशों की बोलियों का प्रभाव भी पड़ता ही एक ही कारण नहीं है, अपितु अनेक कारण हैं, जिन पर था। फलतः आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन हुआ हम क्रमशः विचार करेंगे और उनमें तत्-तत् क्षेत्रीय बोलियों का मिश्रण होता १. भारत में वैदिक परम्परा में वेद वचनों को मंत्र गया। उदाहरण के रूप में जब पूर्व का भिक्षु पश्चिमी रूप में मानकर उनके स्वर-व्यंजन की उच्चारण योजना प्रदेशों में अधिक विहार करता है, तो उसकी भाषा में पूर्व को अपरिवर्तनीय बनाये रखने पर ही अधिक बल दिया और पश्चिम दोनों की ही बोलियों का प्रभाव आ जाता गया। उनके लिए शब्द और ध्वनि ही महत्त्वपूर्ण रही है। फलतः उनके द्वारा कण्ठस्थ आगम के भाषिक स्वरूप और अर्थ गौण रहा। यही कारण है कि आज भी अनेक की एकरूपता समाप्त हो गई। वेदपाठी ब्राह्मण ऐसे हैं, जो वेदमंत्रों की उच्चारण शैली, लय आदि के प्रति तो अत्यन्त सतर्क रहते हैं, किन्तु वे ४. सामान्यतया बुद्ध के वचन बुद्ध के निर्वाण के उनके अर्थों को नहीं जानते। यही कारण है कि वेद शब्द २००-३०० वर्ष के अन्दर ही अन्दर लिखित रूप में आ रूप में यथावत बने रहे। इसके विपरीत जैन परम्परा में गए। अतः उनके भाषिक स्वरूप में उनके रचनाकाल के यह माना गया कि तीर्थंकर अर्थ के उपदेष्टा होते हैं। बाद बहुत अधिक परिवर्तन नहीं आया, तथापि उनकी उनके वचनों को शब्द रूप तो गणधर आदि के द्वारा उच्चारण शैली विभिन्न देशों में भिन्न-भिन्न रही है। आज दिया जाता है। अतः जैनाचार्यों के लिए अर्थ या कथन । भी लंका, बर्मा, थाईलैण्ड आदि देशों के भिक्षुओं का का तात्पर्य ही प्रमुख था। उन्होंने कभी भी शब्दों पर बल त्रिपिटक का उच्चारण भिन्न-भिन्न होता है, फिर भी नहीं दिया। शब्दों में चाहे परिवर्तन हो जाए, लेकिन उनके लिखित स्वरूप में बहुत कुछ एकरूपता है। इसके अर्थों में परिवर्तन नहीं होना चाहिए। यही जैन आचार्यों विपरीत जैन आगमिक एवं आगमतुल्य साहित्य एक का प्रमुख लक्ष्य रहा। शब्द रूपों की उनकी इस उपेक्षा के सुदीर्घकाल तक लिखित रूप में नहीं आ सका। वह गुरुफलस्वरूप आगमों के भाषिक स्वरूप में परिवर्तन होते शिष्य परम्परा से मौखिक ही चलता रहा। फलतः ४८ जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ? | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19