Book Title: Jain Agamo ki Mul Bhasha Ardhamagadhi ya Shaurseni
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf
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जैन संस्कृति का आलोक
है
३. भगवती आराधना, ईसा की छठी शती, - शिवार्य अनुपस्थित है, जबकि षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती ४. मूलाचार, ईसा की छठी शती, - वट्टकेर
आराधना आदि ग्रन्थों में और कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में
इनकी चर्चा पायी जाती है अतः ये सभी ग्रन्थ उनसे ज्ञातव्य है कि ये सभी ग्रन्थ मूलतः यापनीय परम्परा
परवर्ती हैं। इसी प्रकार उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र मूल के हैं और इनमें अनेकों गाथाएँ श्वेताम्बर मान्य
और उसके स्वोपज्ञ भाष्य में भी गुणस्थान की चर्चा आगमों, विशेष रूप से नियुक्तियों और प्रकीर्णकों
अनुपस्थित है, जबकि इसकी परवर्ती टीकाएँ गुणस्थान के समरूप हैं।
की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत करती है। उमास्वाति का काल व. कुन्दकुन्द, ईसा की छठी शती के लगभग के ग्रन्थ- तीसरी-चौथी शती के लगभग है। अतः यह निश्चित है ५. समयसार
कि गुणस्थान का सिद्धान्त पाँचवी शती में अस्तित्व में नियमसार - आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा
आया। अतः शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध कोई भी ग्रन्थ,
जो गुणस्थान का उल्लेख कर रहा है, ईसा की पाँचवी ७. प्रवचनसार रचित (६ठी शती)
शती के पूर्व का नहीं हैं। प्राचीन शौरसेनी आगम-तुल्य ८. पञ्चास्तिकायसार
ग्रन्थों में मात्र कसायपाहड ही ऐसा है, जो स्पष्टतः गुणस्थानों ६. अष्टपाहुड (इसका कुन्दकुन्द द्वारा रचित होना सन्दिग्ध का उल्लेख नहीं करता हैं, किन्तु उसमें भी प्रकारान्तर से है, क्योंकि इसकी भाषा में अपभ्रंश के शब्द रूप भी १२ गुणस्थानों की चर्चा उपलब्ध है। अतः वह भी
आध्यात्मिक विकास की उन दस अवस्थाओं, जिनका स. अन्य ग्रन्थ, ईसा की छठी शती के पश्चात् -
उल्लेख आचारांग नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में हैं, से १०. तिलोय पण्णति - यतिवृषभ
परवर्ती और गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के संक्रमणकाल
की रचना है। अतः उसका काल भी चौथी से पाँचवी ११. लोकविभाग
शती के बीच सिद्ध होता है। १२. जंबुद्वीप पण्णति
शौरसेनी की प्राचीनता का दावा, कितना खोखला १३. अंगपण्णति
___शौरसेनी की प्राचीनता का गुणगान इस आधार पर १४.क्षपणसार
भी किया जाता है कि यह नारायण कृष्ण और तीर्थंकर १५. गोम्मटसार (दसवीं शती)
अरिष्टनेमि की मातृभाषा रही है, क्योंकि इन दोनों महापुरुषों किन्तु इनमें से कसायपाहुड को छोड़कर कोई भी का जन्म शूरसेन में हुआ था और ये शौरसेनी प्राकृत में ही ग्रन्थ ऐसा नहीं हैं, जो पाँचवीं शती के पूर्व का हो। ये
___ अपना वाक्-व्यवहार करते थे। डॉ. सुदीप जी के शब्दों सभी ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त और सप्तभंगी की चर्चा
में “इन दोनों महापुरुषों के प्रभावक व्यक्तित्व के महाप्रभाव अवश्य करते हैं और गुणस्थान की चर्चा जैन दर्शन में
से शूरसेन जनपद में जन्मी शौरसेनी प्राकृत-भाषा को पांचवीं शती से पूर्व के ग्रन्थों में अनपस्थित है। श्वेताम्बर सम्पूर्ण आर्यावर्त में प्रसारित होने का सुअवसर मिला आगमों में समवायांग और आवश्यक निर्यक्ति की दो था।” (प्राकृत विद्या, जुलाई - सितम्बर ६६, पृ. ६) प्रक्षिप्त गाथाओं को छोड़कर गुणस्थान की चर्चा पूर्णतः यदि हम एक बार उनके इस कथन को मान भी ले,
| जैन आगमों की मूल भाषा : अर्धमागधी या शौरसेनी ?
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