Book Title: Itihas Me Bhagwan Mahavir ka Sthan
Author(s): Jay Bhagwan
Publisher: A V Jain Mission

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Page 5
________________ म जमाने की परिस्थिति के साथ बदलने सुधरने और मागे बढ़ने की ताकत थी। तब इनके दिलो में संकीर्णता. जबान में कटुता और बर्ताव में हिंसा भरी थीं। ऐसे वातावरण में जात-पात और वर्णव्यवस्था के संकीर्ण भावोंकों फलने फूलने की खूव आजादी मिली थी। तब जन्म के आधार पर छुटाई बड़ाई की कल्पनाोंने भारतीय जनताको नेक टुकड़ो में बांट दिया था। भारत की मूल जातियों की दशा जो माववता के क्षेत्रसे निकाल कर क्षुद्रता के गड्ढे में धकेल दी गई थी, पशुओं से भी परे थी। उन्हें अपने विकास के लिये धार्मिक, राष्टि क और समाजिक कोई भी अधिकार और सुविधाएँ प्राप्त न थी। तब धर्म के नाम पर सब ओर हिंसा, विलासिता और शिथिलाचार बढ़ रहा था। मांस, मदिरा और मथुन व्यसन खूब फेल रहे थे, स्त्री गोया स्वंय मनुष्य न होकर मनुष्य के लिये भोगवस्तु बनी हुई थी। बहुत से विमूढ अन नदियों में डूबकर, पर्वतों से गिर कर, अग्नि में जलकर, स्वहत्या द्वारा अपना कल्याण मानते थे । व्यर्थ के अन्धविश्वासों क्रियाकाण्डों और विधि-विधानों में समाज के धन, समय और शक्तिका हास हो रहा था। तब धर्म सौधेसादे प्राचार की चीज न रहकर जटिल प्राडम्बर की तिजारती चीज बन गई थी, जो यज्ञ-हवन कराकर देवी-देवतानों से, दान-दक्षिणा दे कर पुरोहित पुजारियों से खरीदी जा रही थीं। _____ उस समय भारत के श्रमण साधु भी विकारसे खाली न थे। उन में से बहुत से तो ऋद्धि-सिद्धिके चमकारो में पड़कर हठयोग के अनुयायी बने थे। बहुत से साधुओं जैसा बाहरी रंगरूप बनाकर रहने में ही अपने को सिद्धमानते थे। बहुत से तनकी बाहरी शुद्धिको ही अधिक प्रधानता दे रहे थे। बहुत से सुख शौलता में पड़कर थोथी सैद्धान्तिक चर्चामों और वाकसंघर्ष में ही अपने समयको विता रहे थे। बहंत से दम्भ और भय से इतने भरे थे कि बे दूसरों को अध्यात्म विद्या देने में अपनी हानि समझने लगे थे। भारत की इस परिस्थिति में अब धर्म के नाम पर मानवताका खून और

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