Book Title: Hirvijaysuri Stuti Author(s): Atmanand Jain Traict Society Publisher: Atmanand Jain Traict Society View full book textPage 5
________________ ( ४ ) प्रसन्नार्थ गुरुवर के उसने जजिया कर भी छोड़ दिया, जैन-धर्म को उत्तम माना, हिंसा से मुख मोड़ लिया ॥ [६] .. विद्या जैसी मिली आपको वैसी ही थी कान्ति मिली, क्रान्ति किसी पर न की आपने, रडी आपको शान्ति मिली। प्रज्ञा के ज्यों रहे प्रभाकर, त्यों गुणसागर श्राप रहे, वशी रहे श्री हीरविजय ! ज्यो, त्यो नयनागर अाप रहे । मृगपति के सम्मुख ज्यों मृगगण, खगलमूह ज्यों खगपतिके विमुख आपके सम्मुख थे त्यों, जैसे उडुगण उडुपति के। . वादिवृन्द-हृत्तम को दिनकर मुनिवर ! दयानिधान रहे, निर्मम निरहंकार रहे पर सदा सहित सम्मान रहे ॥ [ ] हुए म्लेच्छ भी स्वच्छ आपके सुन करके उत्तम उपदेश, देश-सुधारक क्लेश-विदारक रहा आपका सदा निदेश । दर्शन मिला आपका जिनको उन्हे सुजनता प्राप्त हुई, निर्दय वधिकों के भी उर में दया-सुधा संव्याप्त हुई ॥ [पण्डित रामचरित जी उपाध्याय]Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10