Book Title: Hirvijaysuri Stuti Author(s): Atmanand Jain Traict Society Publisher: Atmanand Jain Traict Society View full book textPage 6
________________ ( ५ ) . [१] अमर नगर सा ही वह पावन पालन नगर गया देखा, मुक्तिधाम सा विश्व-धाम में उसका किया गया लेखा। मुनिप्रवर श्री हीरविजय जी प्रकटे आप जहां गुणधाम, सभी काम निष्काम आप के रहे श्राप यश-मूर्ति ललाम ॥ [२] पर का दुःख मिटाया उसने, जिसने दुःख को स्वयं सहा, शास्त्र-समर में जोता जिसने, वही मही पर अमर रहा। हीरविजय जी ! बाल्य आपका दुःखों का अवतार हुआ, क्योंकि आपके जननि-जनक से विरहित यह संसार हुआ ॥ [३] मुने ! श्रापका जननी-जनको से नाता क्या टूट गया, मानो पूर्व पुण्य के बल से भव का बन्धन छूट गया। शोक छोड़ कर लोक-हितैषी पाटन नगर गये बे रोक, विजय दान से वहां आपके उर में बढ़ा बान-पालोक ॥ [४] मुने ! आपको विजयदान से दुर्लभ दीक्षा-दान मिला, मन में मान-रहित थे तो भी जग में प्रति सम्मान मिला। वाचक श्रादि पदवियों से फिर भूषित हो विख्यात हुए. कोकि धर्म के तत्त्व आपके मुख से जग को हात हुए। सूरि ! आपकी विद्वत्ता की महिमा फैल गई जग में, सुन कर अकबर की भी श्रद्धा बढ़ी श्राप श्री के पग में ।Page Navigation
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