Book Title: Hirvijaysuri Stuti
Author(s): Atmanand Jain Traict Society
Publisher: Atmanand Jain Traict Society

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Page 7
________________ अपने कर्मचारियों को तब भेज अापको बुलवाया, दर्शन पाकर झुका पगों पर निज जीवन का फल पाया ॥ [६] हय, हाथी, रथ, रत्न आपको अकबर देने लगा वहां, लोभ दिखाकर विविध भाँति के सका नहीं पर लगा वहां । कहा आपने तब सुन अकबर ! होते साधु सदा निष्काम, उन्हें चाहिये नहीं स्वप्न में रमणी, राज्य और धन धाम ॥ [७] हो प्रसन्न अकबर यो बोला " तो कुछ मुझे दीजिये श्रापपाप-ग्रसित हूँ मुने ! मेटिये मेरे उर अन्तर के ताप"। तुरत अापने शान्त भाव से धर्म-तत्त्व को समझाया, जिसे श्रवण करके अकबर ने मन में अतिशय सुख पाया ॥ [८] अकबर ने उपदेश श्रवण कर मन में निश्चित किया यही, जग में ताप-मूल हिंसा से बढ़कर दूजा पाप नहीं। विनय सहित फिर कहा शाह ने क्या श्राहा है नाथ ! मुझे ? कुछ भी तो करना ही होगा, गुरो ! आपके साथ मुझे॥ [ ] यदि कुछ सेवा नहीं करूंगा तो मेरा होगा अपमान, इस कारण कुछ मुझे आप आदेश दीजिये दयानिधान ! मिला ज्ञान का मेवा मुझको सेवा क्यों न करूंगा मैं ? गुरु को भेंट करूंगा सब कुछ मन में नहीं डरूंगा मैं॥ [१०] कहा आपने सुन नृप ! मुझको किसी वस्तु की चाह नहीं, पर निरीह जीवों की मुझको सुनते बनतो श्राह नहीं।

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