Book Title: Hindi Jain Bhakti Kavya aur Kavi
Author(s): Premsagar Jain, Kaka Kalelkar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ भूमिका यह मेरे शोध-प्रबन्धका दूसरा खण्ड है। पहला खण्ड 'जैन भक्ति-काव्यकी पृष्ठभूमि' के नामसे प्रकाशित हुआ है। उसमे पांच अध्याय है : जैन भक्तिका स्वरूप, जैन भक्तिके अंग, जैन भक्तिके भेद, आराध्य देवियाँ और उपास्यदेव । इनके आधारपर जैन भक्तिको प्राचीनतम मान्यता स्थापित की गयी है। वही परम्पराके रूपमें मध्यकालीन हिन्दीके जैन भक्त कवियोंको प्राप्त हुई । जैन ही नही, अन्य भक्तिकाव्य भो उसके प्रभावसे अछूता न बच सका। सन्त-काव्यपर उसकी स्पष्ट छाप है। __वैसे तो कबीरदासको भूख सर्वग्रासी मानी जाती है, किन्तु नाथसम्प्रदायसे उनका विशेष सम्बन्ध था। डॉ० हजारीप्रसाद द्विवेदीके अनुसार, उस समय प्रचलित बारह सम्प्रदाय, नाथसम्प्रदायमे अन्तर्मुक्त हुए थे। उसमे 'पारस' और 'नेमि' सम्प्रदाय भी थे । नेमि सम्प्रदाय जैनोंके बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथके नामपर प्रचलित था। वह समूचे दक्षिण भारतमें फैला था। उसके ध्वंसावशेष अबतक मिलते हैं। 'पारस सम्प्रदाय' तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथसे सम्बद्ध था। उसका समूचे उत्तरी भारतमें प्रसार था। इस प्रकार कबीर जाने या अनजाने एक ऐसी लहरका स्पर्श पा सके थे, जो अनेकान्तात्मक थी। उनकी 'निर्गुण' मे 'गुण' और 'गुण' में 'निर्गुण'वाली बात ऐसी ही थी। निर्गुणका अर्थ है गुणातीत और गुणका अर्थ है प्रकृतिका विकार-सत्त्व, रज और तम । संसार इस विकारसे संयुक्त है और ब्रह्म उससे रहित । किन्तु कबीरदासने विकार-संयुक्त संसारके घट-घटमें निर्गुण ब्रह्मका वास दिखाकर सिद्ध किया है कि 'गुण' 'निर्गुण' का और 'निर्गुण' 'गुण' का विरोधी नही है। उन्होंने 'निरगुनमे गुन और गुनमे निरगुन' को ही सत्य माना, अवशिष्ट सबको धोखा कहा। ___ कबीरसे बहुत पहले, विक्रमको सातवी शतीमें, इसी निर्गुणको 'निष्कल संज्ञासे अभिहित किया गया था। फिर सभी अपभ्रंश काव्योंके रचयिता कवि उसे "निष्कल' ही कहते रहे। मुनि रामसिंहने उसे एक स्थानपर 'निर्गुण' भी कहा है । उसका अर्थ किया है : निलक्षण और निःसंग । वह निष्कलसे मिलता-जुलता है । जिस प्रकार कबीरका निर्गुण ब्रह्म भीतरसे बाहर और बाहरसे भीतर तक फैला है । वह अभावरूप भी है और भावरूप भी, निराकार भी है और साकार भी । द्वैत भी है और अद्वैत भी। ठीक इसी प्रकारको बात अपभ्रंशके जैन कवि

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