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हिन्दी जैन भक्ति-काव्य और कवि
मेरुनन्दन उपाध्याय, सोमसुन्दरसूरि तथा यशोविजय आदि हिन्दीके सामर्थ्यवान् कवियोंको आठ वर्षकी उम्र में ही दीक्षित कर लिया गया था। वे एक ओर प्रकाण्ड पण्डित बने और दूसरी ओर कवि। जिन संघोंमे उनका लालन-पालन, शिक्षा-दीक्षा हुई, उनका वातावरण ऐसा ही था। वहाँ दार्शनिकता और अनुभूति, शुष्कता और उदारता, प्रखरता और कोमलता साथ-साथ पला करती थी। भट्टारक-सम्प्रदाय भी शिक्षाके जीवन्त केन्द्र थे। उनके शिष्य दर्शन, सिद्धान्त और साहित्यके अतिरिक्त मन्त्र, वैद्यक और ज्योतिषमे भी पारंगत विद्वान होते थे। उनमे अनेक ख्यातिप्राप्त बने। उनका कविता-प्रेम भी प्रसिद्ध है। भट्टारक सकलकीतिने संस्कृत-प्राकृतकी अगाध विद्वत्ता प्राप्त की थी। उन्होने केवल संस्कृतमे सत्रह ग्रन्थ लिखे। वे हिन्दीके भी सामर्थ्यवान् कवि थे। उनकी अनेक मुक्तक कृतियोका उल्लेख इस ग्रन्थमे हुआ है। भट्टारक रतनकीर्ति, ज्ञानभूषण और शुभचन्द्र भी ऐसे ही विद्वान् कवि थे। उन्हे पाण्डित्यका भावोन्मेष करना आता था। उनकी विद्वत्तारूपी नौका भावरूपी लहरोके मध्यसे सदैव बहती रही। ब्रह्म जिनदासने अनेक प्रबन्ध काव्योंका निर्माण किया । वे भट्टारक सकलकोतिके छोटे भाई थे। उन्होंने अपनी रचनाओंमे सकलकीतिको गुरु संज्ञासे भी अभिहित किया है। कुमुदचन्दकी उत्तम कवियोंमे गणना थी । उन्होने महाकाव्य लिखे और मुक्तक छन्द भी । वे भट्टारक रतनकोतिके शिष्य थे। भट्टारकों और उनके शिष्योंकी मध्यकालीन हिन्दी काव्यको महत्त्वपूर्ण देन है। उसे विस्मृत नही किया जा सकता। भट्टारक वैभव-सम्पन्न होते थे।। अत: वे अपने शिष्योंके विद्यार्जनके लिए बड़े-बड़े ग्रन्थागारोंकी स्थापना करते थे। उनके यहाँ हस्तलिखित ग्रन्थोंकी प्रतिलिपियां होती ही रहती थीं। केवल जैनधर्मके ही नहीं, सभी धर्मों और विषयोंके ग्रन्थ उनके भण्डारमें संकलित होते थे। गौरवपूर्ण शिक्षाके लिए बृहद् पुस्तकालयोंका होना अनिवार्य है। इस तथ्यको आजके शिक्षाविशारद भी स्वीकार करते हैं। वे कवि, जो न साधु थे और न भट्टारक, 'शास्त्रप्रवचन' या 'सैली' के द्वारा व्युत्पन्न बने थे। शास्त्र-प्रवचनकी परम्परा आज भी है। प्रत्येक मन्दिरके साथ एक सरस्वतीभवन संलग्न होता है और मध्याह्न या रात्रिमें शास्त्र-प्रवचन हुआ करता है । अनेक श्रोता, जिहे अक्षरज्ञान भी नहीं है, सुन-सुनकर ही जैन दर्शनके सूक्ष्म ज्ञाता बन जाते है । प्रवचनमे किसी-न-किसी पुराणका पाठन भी आवश्यक होता है। इन पुराणोंके कथानकोंसे अनेक कवि-हृदय आन्दोलित हुए और वे प्रबन्ध तथा मुक्तक काव्योके निर्माणमे समर्थ हो सके । सधारू (वि० सं० १४११) ऐसे ही एक कवि थे। उन्होने 'प्रद्युम्नचरित' मे लिखा है कि एक एरछ नगर में