Book Title: Hindi Gujarati Dhatukosha
Author(s): Raghuvir Chaudhari, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad
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आ. विश्लेषण तथा निष्कर्ष
____ 1. वर्गीकरण की शास्त्रीयता का प्रश्न 1.1 प्रस्तुत शोधकार्य के द्वितीय खण्ड के ऐतिहासिक तुलनात्मक धातुकोश द्वारा हिन्दी-गुजराती के अध्ययन की वैज्ञानिक पीठिका का एक अंश तैयार, हुआ। हिन्दी का भाषा-भूगोल बहुत बड़ा है। एक ही मूल धातु विभिन्न बोलियों में रूपवैविध्य रखती है । इन बोलियों में साहित्य-रचना शुरू होने के उपरान्त इनका शास्त्रीय अध्ययन भी होने लगा है। ऐसे अध्ययनों के फलस्वरूप एक ही धातु के विविध रूप सुलभ हुए । इनकी उपेक्षा करने के बजाय इनका वर्गीकरण के द्वारा छाँटना उचित लगा । धातुकोश का संख्याभेद इस प्रक्रिया में दूर हो गया।
1.2 ऐतिहासिक अध्ययन में व्युत्पत्ति अनिवार्य समझी जानी चाहिए। संभव होता तो सभी तद्भव धातुओं का विकासक्रम समझाने के लिए संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश तथा पुरानी हिन्दी, पुरानी गुजराती - सभी के रूप दिए जाते । सुलभ आधार तथा सुगमता दोनों का लक्ष्य करते हुए केवल संस्कृत और प्राकृत रूप ही दिए हैं। इनको टर्नर आदि विद्वानों के संदर्भ से समर्थित किया है इसलिए इनके अधिकृत होने का प्रश्न शायद ही कहीं खड़ा होगा।
___1.3 प्रस्तुत अध्ययन के विषयक्षेत्र की सीमा में धातुओं का अकर्मक, सकर्मक आदि प्रकारभेद बताना आवश्यक नहीं था, यह क्षेत्र व्याकरण का है। परन्तु जहाँ एक ही धातु के अकर्मक-सकर्मक दोनों रूप सुलभ हों वहाँ दोनों का समावेश करने से धामुसंख्या और भी बढ़ जाती । इस दोष से बचने के लिए इस व्याकरणिक वर्गीकरण के संकेतों का धातुकोश में उपयोग किया है।
___ 1.4 कुछ अनुकरणात्मक धातुएँ तद्भव हैं, कुछ देशज । इनका तद्भव या देशज होना दूसरी पहचान है। वर्गीकरण करते समय इनको अनुकरणात्मक के विभाग में रखा गया है । कुछ तदभव भातुएँ अनुकरणात्मक होने का आभास देती हैं किन्तु अधिकारी विद्वानों ने इन्हें केवल तद्भव के रूप में ही पहचाना है। इसी में समाधान पाकर ऐसी धातुओं को तद्भव के अंतर्गत रहने दिया है; जैसे 'झनझना' (1610)।
1.5 संस्कृत से हिन्दी तक पहुँची हुई सभी धातुएँ क्रियावाचक धातुओं के मूल रूप में ही सुरक्षित रहकर कालजयी नहीं हुई हैं। पूर्व-प्रचलित विविध क्रिया-रूपों से कोई रूप आगे बढ़ा। उस सरल रूप में रही मूल धातु फिर से रूपवैविध्य पाकर जी उठी । जसे कि संस्कृत के तिङन्त तथा कृदन्त रूपों के तद्भव एवं इन दोनों के संयोग से बने क्रियारूप अपभ्रंश में प्रयुक्त होने लगे। संस्कृत में तो प्रयोग, काल, पुरुष और वचन के बहसंख्य होने के कारण, प्रत्येक धातु के 6x10x3x3 = 540 रूप होते थे। डॉ. शु. रि उदयनारायण तिवारी आदि की दृष्टि से यह अस्वाभाविक स्थिति थी। नई भाषाएँ सरलीकरण की ओर उः और अपभ्रंश तक पहुँचते पहुँचते केवल एक गण रह गया । संस्कृत की गणव्यवस्था हिन्दी तक पहुँचने से पहेले ही शून्यशेष हो गई। इसे सरलीकरण तथा प्रयत्न-लाघव के रूप में लक्षित होते भाषा-परिवर्तन की सहज प्रक्रिया मानाना होगा। हां तक क्रियारूप के परिवर्तन तथा परस्पर विनिमय का प्रश्न है, विद्वानों ने हिन्दी-गुजराती दोनों भाषाओं के
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