Book Title: Hidayat Butparastiye Jain
Author(s): Shantivijay
Publisher: Unknown

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Page 18
________________ १८ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. तीर्थ शत्रुजयकी जियारतकों गये थे. कई श्रावक जैनमुनिकों वंदन करनेके लिये एक शहरसे दुसरे शहर जावे यह गुरुयात्रा हुई. जब गुरुयात्रामें पुन्य है तो देवयात्रामें पुन्य क्यों नही? देवलोगोके चित्र-नरकावासोके चित्र-जंबूद्वीप वगेराके नकशे. देखकर जैसे ऊन ऊन चीजोका ज्ञान होता है मूर्ति देखकर ऊस देवका ज्ञान क्यों न होगा ? तीर्थकरोके समवसरणमें पूर्व दिशाके सामने खुद तीर्थंकरदेव तख्तनशीन होते है, और तीनदिशामें तीर्थंकरदेवकी मूर्ति बनाकर देवतेलोग जायेनशीन करते है. सबुत हुवा खास तीर्थकरोके होते हुवे भी मूर्ति मानी जातीथी, खयाल करो! यह किसकदर मजबूत और पावंद दलिल है कि-जिसपर कोई किसी तरहका ऊज्र नही करसकता. जब तीर्थकरोकी हयातीमें भी मूर्ति मानी जाती थी तो फिर इसके माननेमें कौन जैन इनकार करसकता है ? दश वैकालिकसूत्रकी नियुक्तिमें बयान है. जैनाचार्य शयंभवमूरिने जिनमूर्ति देखकर प्रतिबोध पाया. जैनमजहबमें जिनमंदिर मूर्ति-जैनपुस्तक साधु-साधवी, श्रावक-श्राविका ये सात धर्मक्षेत्र बयान फरमाये, अगर मंदिरमूर्तिका इनकार करे तो पांच धर्मक्षेत्र रहजाते है, और रखना चाहिये सात समजसको तो समज लो ! मंदिरमूर्ति जैनमें कदीमसे है या नही ? कई शिलालेख जमीनसे निकले हुवे ऐसे है, जिनोमे जैनमंदीर और जिनमूर्तिके लेख मीलते है, सौचो! अगर जैनमजहबमें मूर्तिपूजा न होती तो उसके लेख क्यों होते ? अगर क्रिया करनेसे मुक्ति होती हो तो जमालिजीने गौतमगणधर जैसी क्रिया किई फिर उनकी मुक्ति क्यों नही हुई ? दरअसल ! विनाश्रद्धाके क्रिया कारआमद नहीं होती, कइशख्श विना क्रिया किये अकेली श्रद्धापूर्वक भावनासे केवल ज्ञान पाये है, इसीलिये कहा है श्रद्धा बडी दुर्लभ है.

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