Book Title: Hidayat Butparastiye Jain
Author(s): Shantivijay
Publisher: Unknown

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Page 28
________________ २८ हिदायत बुतपरस्तिये जैन. था तो इंद्रदेवते ऐसा क्यों करते ? अगर कोई कहे हम तीर्थकरदेवका ध्यान मनमेंही करलेयगें हमको मूर्ति माननेसे. कोई जरूरत नही. . (जवाब.) फिर गुरुमहाराजका ध्यानभी मनमेंही करलिया करो, गुरुमहाराजके दर्शनोकों एक गांवसे दुसरेगांव जाना क्या! फायदा? गाडीघोडेपर सवार होना, रास्तेमें खानेपीनेका आरंभ करना, क्या जरुरत ? घरबेठेही गुरुका ध्यान करलेना अछा है, गुरुके दर्शनोकों जाना और तीर्थंकरोके दर्शनोकों नही जाना कौन ईन्साफ है ? ___अगर कोई इस दलिलकों पेंश करे कि-तीर्थकरदेव त्यागी होते थे, उनकी मूर्तिको गेहने पहनाना क्या जरुरत ? - __ (जवाब.) तीर्थंकरदेव खुद जब समवसरणमें रत्नसिंहासनपर विराजमान होते थे, दोनों तर्फ देवते चवर करते थे, उनके पीछे भामंडल रखा जाता था, विहार करते वख्त देवताओके बनाये हुवे सुवर्णके कमलोपर पांव देकर चलते थे, इन बातोसे उनका त्यागीपना नहीं गया था, तो उनकी मूर्तिकों गहने पहनानेसें त्यागीपना कैसे चला जायगा ? स्थानांगसूत्रमें बयान है कि-१ सावधव्यापार और सावधपरिणाम, २ सावधव्यापार और निरवद्यपरिणाम, ३ निरवद्यव्यापार और सावधपरिणाम, ४ निरवद्य व्यापार और निरवद्यपरिणाम, इन चार भेदोमें पहलाभेद अधर्मी मिथ्यादृष्टिकी अपेक्षासे कहा गया है, ऐसा जानना, क्योंकि अधमौके मनपरिणाम पापमय और कर्तव्यभी पापमय होते है. दुसरा भेद सावधव्यापार और निरवद्यपरिणाम यह श्रद्धावान् श्रावककी अपेक्षासे कहा गया है, ऐसा जानना. देवपूजा, गुरुवंदन वगेरा धार्मिक कामोमें सावधव्यापार दिखाई देता है, मगर मनःपरिणाम

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