Book Title: Hastlikhit Granth Suchi Part 02
Author(s): Gopalnarayan Bahura
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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[ राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जोधपुर :
इति श्री वहुत्तर वार्त्ता सुध सुवाबहुत्तरी संपूर्णम् ॥ ७२ संवत् १८६६रा मिती श्रावण सुदी १ दिने लिपतं पं० विजैसमुद्रेण श्रीजैसलमेर दुर्गे चतुर्मास्यां स्थिता | शुक होतरी । प्रथम पत्र प्राप्त
६७६. ४४१६
आदि- ''''दी कह्यो । पृथ्वीके विषै वहुतरी कथा मनुष्य भाषा करि प्रभावती ग्रा कहसी । सील रषावसी । तदि गंधमाद परवतकै विषै ग्राविने शुक सरीर छोडि मूलगो शरीर पामी पांचसं मोहर ब्राहमणन दान देई । निपाप थाइस।
अन्त— ··· कवि देवदत कहे । शुकका वचन भेला करिकै ग्रापको बुद्धिकै अनुसारे बांधी हुई ।
इति श्रीशुकवहोतरी कथा समाप्ता ॥ संवत् १७६० वर्षे आसोज वदि ६ पप्टी भोम वासरे पं० वनीतविजय लिपि चक्रे ॥ शुभं भवतु || श्रीसमाप्ता ॥
७२४. ४२८७ (१६) सवाई जैसहजीकी जोधपुर चढ़ाईका वर्णन
- "संवत १७७ का मीती सावरण वदी ८ ने श्रीमाहराजा सवाई जैसंघजी जोधपुर वुपर चढा । राजा भैसंघरी हुकम पतिसाह महमुदसाह का [ सा]धे चढा । सो रोजपदरामै १५ जोधपुर जाइ लागा । नरफ मडोवरकी डेरा जाइ कीया । मुकाम १ विशेष- आगे युद्धके खर्चे और जोवपुरकी तरफसे लिये गये उपहार त्रादिका वर्णन है जो
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पूर्ण है।
७७५.
४६०३ हमीररासो (हमीरायन ) आदि- श्री गनेंसाय नम । हमीराईन लीपतै ॥ कवीत - गवरीनंद आनंद चंद लीलाट वीराजैत ।
च्यार भुज कर फरस सरस भुषन अग राजत ॥ कर कमंडल जयमाल लाल वसत्र वोह सुहावै 1
मधुर स्वगंध स्वणमय रची और उदभाहन कीन ।
हो हय प्रसन सुधी दुधी धनी जो कथ कवीत प्रमा माग ॥ १
श्रन्त-कवीतः ॥ श्रसी करीउ काहु करें नहीं, कोउ सो करी राजवी चक्र तल ।
वाईस वीक्रम राण दुयवीन पाईवयाभा: अजहु मध्यकी रोड रोले । दक्षीन भंडारा मदगल कहु हमेल करी ।
कदल रनथंभ गढ असी करें न कोई ॥
ती श्रीहमरायन साको श्रीगार संपुरन सभापती |
छंद जाजाकोः ॥ कुडलीयो माई मोहदे असीस काई जीवो वरस सो । याई मोह दे असीस छीत्री ई तोर जीवो । वारा ऊपर वीस भनैजा जन वीरम केह ।
लीपतं पांडे नाथुराम ब्राह्मन गोङ मी त्रासावी श्रम धर्ममुर्त्त गउ ब्राह्मनका रक्षपाल राजा श्रीमलजी कूं: नाथुराम ब्राह्मन गोङ सदारामको भतीजो टोडे रहे हे पंकीजीको अप भीछुकको असीस वंचजोजी मीतो पोस वदी ६ मंगलवार संवत् १७८७ जो पुस्तग वाचं जीकु राम राम वंचजोजी । जाद्रप्टं दत्त्वा तासं लीपते मा । जदी सुद्ध वीसुद्धं वा मम दोषे न दीयते ॥ शु० ॥

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