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हस्तलिखित ग्रन्थ सूची, भाग-२, परिशिष्ट-१ ] .
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समापिता ॥ मिती माघसिर सुदि १३ पंचम्या तिथौ वार वृहस्पति वासरे संवत १९२३ का। श्री ।। श्री ।। श्री ।। श्री।। श्री ॥
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सभासार नोटक आदि- प्रथम पत्र अप्राप्त
से पथरन भीजै पानी कब लौं विचारीयै ।। जिहां वकवाद तिहां अंत न सवाद कछु, श्राप जो न सुधरै तो कौंनकौं सुधारिये । जोपै अति जोर तो वताउं एक ठोर तोहि,
जानीये जगत जोपै एक मन हारीये ॥ २६ दोहरा- सब लछन पहिलै सुनौ पुण्य सुसंगत पाय ।
मन चंचलतासू वस, नीच संग न सुहाय ।। २७ अन्त- सतगुरु सोही जो वतावै साचे मारगर्छ,
साथी सतसंग जामै चलत ने हान है । कहत अरूप कोउ कोट काम केसै तेजपुंज धाम जाहि जैसी ही पहिचान है। ताहिम मगन देहकों विसर जान, वेदको विचार यहै जान है सुजान है ।। यहै पेम लछिना अनन्य भक्ति मुक्ति यह,
यत्र पदप्राप्ति विग्यान निरवान है ।। २७ दोहा- सब विध सब रस सोहियत, कहत यहै रघुराम ।
यह नाटिक सम सदा, भूषन भेद सुनाम ।। २८ छप्पै- यह नाटिक जो सुनै, ताहि हिय फाटिक पुल ।
यह नाटिक जो सुन, बुधवल कमल प्रफुलै ।। यह नाटिक जो सुनै, ग्यान पूरन मन आवै । नाटिक सूने सूजान, मरम मनूजको पावै॥ विग्यान जान निरवानकै, जोग ध्यान धर धन लहै । पावत परमपुरुष गत, मति प्रमान कवि रघु कहै ।। ३२६
इति श्री कवि रघुराम विरचित सभासार नाटिक संपूर्णम् । संवत् गुरणकृत वसु शशी, तपस्यपक्ष शिति जान । पक्षति छाया सुत दिवस, ग्रंथ चढयो परमान ।। १ अपि किसोर सोझत हुँते, रत्नचंद्र के मित्त । सभासारनाटिक लिष्यो, सकल रिझावन चित्त ।। २ निगम दिवसकी संख्यमै, सत्वरतें शपिरत्न । लिख्यो ग्रंथ वाचत सुनत, करीयो इनको यत्न ॥ ३ ॥ श्रीरस्तु ॥ सवनर ।। भद्रं भूयादिति ।। श्रीः ॥