Book Title: Gyan bhandaro par Ek Drushtipat
Author(s): Punyavijay
Publisher: Punyavijayji

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Page 14
________________ १४] જ્ઞાનાંજલિ अविच्छिन्न लिखी जाती लिखावटके बीचमें के अमुक अमुक अक्षर ऐसी सावधानी और खूबीसे लाल स्याहीसे जिखते जिससे उस लिखावटमें अनेक चित्राकृतियाँ, नाम अथवा श्लोक आदि देखेपढ़े जा सकते । ऐसी चित्रपुस्तकोंको हम 'लिपिचित्रपुस्तक' के नामसे पहचान सकते हैं । इसके अतिरिक्त 'अंकस्थानचित्रपुस्तक' भी चित्रपुस्तकका एक दूसरा प्रकारान्तर है। इसमें अंकके स्थानमें विविध प्राणी, वृक्ष, मन्दिर आदिकी आकृतियां बनाकर उनके बीच पत्रांक लिखे जाते हैं। चित्रपुस्तकके ऐसे कितने ही इतर प्रकारान्तर हैं। ग्रन्थसंशोधन, उसके साधन तथा चिह्न आदि जिस तरह ग्रन्थोंके लेखन तथा उससे सम्बद्ध साधनों की आवश्यकता है उसी तरह अशुद्ध लिखे हुए ग्रन्थों के संशोधनकी, उससे सम्बद्ध साधनोंकी और इतर संकेतों की भी उतनी ही आवश्कता होती है। इसीलिये ऐसे अनेकानेक प्रकारके साधन एवं संकेत हमें देखने तथा जाननेको मिलते हैं। साधन- हरताल आदि - ग्रन्थोंके संशोधनके लिये कलम आदिकी आवश्यकता तो होती ही है, परन्तु इसके अतिरिक्त अशुद्ध और अनावश्यक अधिक अक्षरोंको मिटानेके लिये अथवा उन्हें परिवर्तित करनेके लिये हरताल, सफेदा आदिकी और ख़ास स्थान अथवा विषय आदिकी पहचानके लिये लाल रंग, धागा आदिकी भी आवश्यकता होती है । ताड़पत्रीय पुस्तकोंके ज़मानेमें अक्षरोंको मिटानेके लिए हरताल आदिका उपयोग नहीं होता था, परन्तु अधिक अक्षरोंको पानीसे मिटाकर उसे अस्पष्ट कर देते थे अथवा उन अक्षरोंकी दोनों ओर ४ २ ऐसा उलटा सीधा गुजराती नौके जैसा आकार बनाया जाता था और अशुद्ध अक्षर युक्तिसे सुधार लेते थे । इसी प्रकार विशिष्ट स्थान आदिकी पहचानके लिये उन स्थानोंको गेरूसे रंग देते थे । परन्तु कागजका युग आनेके बाद यद्यपि प्रारम्भमें यह पद्धति चालू रही किन्तु प्रायः तुरंत ही संशोधनमें निरुपयोगी अक्षरों को मिटाने के लिये तथा अशुद्ध अक्षरोंको परिवर्तित करनेके लिये हरताल और सफेदेका उपयोग दिखाई देता है। तूलिका, बट्टा, धागा- ऊपर निर्दिष्ट हरताल आदि लगानेके लिये तूलिकाकी आवश्यकता पड़ती थी तथा हरताल आदिके दरदरेपनको दूर करनेके लिये कौड़ी आदिसे उसे पीस लेते थे । तूलिकाएँ गिलहरीकी दुमके वालोंको कबूतर अथवा मोरके पंखके अगले पोले भागमें पिरोकर छोटी-बड़ी जैसी चाहिए वैसी हाथसे ही बना ली जाती थी अथवा आजकी तरह तैयार भी अवश्य मिलती होगी। स्याही आदि घोंटनेके लिये बट्टे भी अकोक आदि अनेक प्रकारके पत्थरके बनते थे। इनके अतिरिक्त ताड़पत्रीय प्रन्थोंके ज़मानेमें ग्रन्थके विभाग अथवा विशिष्ट विषयकी खोजमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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